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________________ *** ***** मिथ्यादृष्टियों का महा शत्रु है इसलिए उसे उन मिथ्यादृष्टियों के निकट बलरहित होकर न बसते हुए जिनधर्मियों की ही संगति में रहना योग्य है- यह उपदेश है ।।४८ । । (७) धर्म के स्वरूप के वक्ता सुगुरु का स्वाधीन संयोग होने पर भी जो निर्मल धर्म का स्वरूप नहीं सुनते वे पुरुष ढीठ हैं और दुष्ट हैं अथवा संसार के भय रहित सुभट हैं ।। ९३ ।। (८) हमारा किसी के ऊपर राग-द्वेष नहीं है, केवल गुरुओं में रागद्वेष है । वे तो हमारे धर्म के अर्थ गुरु हैं, उनके सिवाय जो जिनाज्ञा में तत्पर हैं अन्य सब कुगुरुओं का मैं त्याग करता हूँ । ।१०४ ।। (९) जिनवचन रूपी रत्नों के आभूषणों से जो मंडित हैं और यथार्थ आचरण के धारी हैं वे सब ही सुगुरु हैं ।। १०५ ।। (१०) आज भी कई जिनराज के समान नग्न मुद्रा के धारी गुणवान एवं निर्दोष गुरु दिखाई देते हैं जो केवल बाह्य लिंगधारी ही नहीं हैं वरन् जिनभाषित धर्म के धारी हैं, केवल परमहंसादि के समान नहीं हैं । शंका- आज इस क्षेत्र में यहाँ मुनि तो दिखते नहीं फिर यहाँ पर कैसे कहे ? समाधान - मात्र तुम्हारी अपेक्षा तो वचन नहीं है, वचन तो सबकी अपेक्षा होता है । किन्हीं पुरुषों के वे प्रत्यक्ष होंगे ही क्योंकि दक्षिण दिशा में आज भी मुनि का सद्भाव शास्त्र में कहा है । । १०७ ।। (११) जिनकी होनहार भली नहीं है उनको सुगुरु का सदुपदेश कभी नहीं रुचता किन्तु विपरीत ही भासित होता है । । १०८ | | (१२) अहो ! ऐसा मंगल दिवस कब होगा जब मैं सुगुरु के चरणों के निकट जिनधर्म को सुनूँगा ! इस प्रकार जिनसे धर्म की प्राप्ति होती है ऐसे सुगुरु के संगम की भावना भाई है । ।१२८ || (१३) अपनी बुद्धि के अनुसार, व्यवहारनय के द्वारा, सिद्धान्त की शुद्धिपूर्वक, काल तथा क्षेत्र के अनुमान से परीक्षा करके सुगुरु को जानना चाहिये । । १३४ । । (१४) सच्चे गुरु की प्राप्ति सहज नहीं है । जिनका पुण्य का उदय हो और भली होनहार हो ऐसे किन्हीं भाग्यवान कृतार्थ जीवों को ही शुद्ध गुरु मिलते हैं, हम अज्ञानी भाग्यहीनों को गुरु की प्राप्ति व निश्चय कैसे हो ! ।। १३५ । । 30
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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