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________________ पदस्थ ध्येय स्वरुप उन कमलके मध्यमें रेफसे (') आक्रान्त कलाविन्दु (') से रम्य स्फटिक जैसा निर्मल आयवर्ण ॥१॥ सहित और अन्त्यवर्णाक्षर ।।। स्थापन करना जिससे "अहे" बनता है, और यह पद पाण प्रान्तके स्पर्श फरनेवालेको पवित्र करता हुवा इस्व, दीर्घ, प्लुत, सुक्ष्म, और अति सूक्ष्म जैसा उच्चारण होगा। उसके बाद नाभिकी, कण्ठकी और हृदयकी घटिकादि ग्रन्यियोको अति सूक्ष्म धनिसे विदाहरण करता हुवा, मध्य मार्गसे वहन करता हुआ चिन्तब करना, और विन्दुमेंसे तप्तकला द्वारा निकलते दध जैसे सफेद अमृतके कलोलोंसे अन्तरआत्माको भीजता हुवा चिन्तवनकर, अमृत सरोवरमें उत्पन्न होनेवाले सोलह पाखडीके सोलह स्वरवाले कमलके मध्य में आत्माको स्थापन कर उसमें सोलह विद्यादेवियोंकी स्थापना करना। देदिप्यमान स्फटिकके कुम्भमेसे झरते हुवे दूध जैसे सफेद अमृतसे निजको लम्बे समयसे सिश्चन होता हो ऐसा चिन्तवन करना, और मन्वाधिराजके अभिधेय स्फटिक जैसे निर्मल परमेष्टि अर्हन्तका
SR No.009486
Book TitleNavkar Mahamantra Kalp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmal Nagori
PublisherChandanmal Nagori
Publication Year1942
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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