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________________ अष्ट पाहुड़ . .at स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द FDOG) DOGIS Des/ Dool] Doollo पाथ 聯繫听听听听听听听听听听听听听听听听業 'तुषमाष' ऐसे शब्द को घोखते हुए भाव से विशुद्ध महानुभाव होकर केवलज्ञानी हुए-यह प्रकट है। भावार्थ कोई जानेगा कि 'शास्त्र पढ़ने से ही सिद्वि है' तो ऐसा भी नहीं है। 'तुषमाष' ऐसा शब्द मात्र ही रटते हुए भाव की विशुद्धि से जिन्होंने केवलज्ञान पाया उन शिवभूति मुनि की कथा इस प्रकार है-कोई शिवभूति नामक मुनि थे, वे गुरु के पास शास्त्र पढ़ते थे पर धारणा होती नहीं थी तब गुरु ने ‘मा रुष, द्वेष मा तुष' ये शब्द पढ़ाये सो वे इन शब्दों को घोखने लगे। इनका अर्थ यह है कि 'रोष मत कर और तोष मत कर अर्थात् राग-द्वेष मत कर', इससे सर्व सिद्वि है। फिर ये भी शब्द उन्हें शुद्ध याद नही रहे तब 'तुषमाष' ऐसा पाठ घोखने लगे, दोनों पदों के 'रुकार माकार' का विस्मरण हो गया और 'तुषमाष' ऐसा याद रहा। उसको घोखते हुए विचरण करने लगे तब कोई एक स्त्री उड़द की दाल धो रही थी, उससे किसी ने पूछा कि 'तू क्या कर रही है ?' तब उसने कहा-'तुष (छिलका) और माष (दाल) न्यारे-न्यारे कर रही हूँ।' तब मुनि ने यह सुनकर 'तुषमाष' शब्द का भावार्थ ऐसा जाना कि 'यह शरीर तो तुष है और यह आत्मा माष है, दोनों भिन्न हैं, न्यारे-न्यारे हैं'-ऐसा भाव जान आत्मा का अनुभव करने लगे तथा चिन्मात्र शुद्ध आत्मा को जानकर उसमें लीन हुए तब घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान उपजाया। इस प्रकार भाव की विशुद्धि से सिद्धि हुई जानकर भाव शुद्ध करना-यह उपदेश है।।५३|| उत्थानिका 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 आगे इसी अर्थ को सामान्य से कहते हैं :भावेण होइ णग्गो बाहिरलिंगेण किं च णग्गेण । कम्मपयडीण णियरं णासइ भावेण दवेण।। ५४ ।। हो भाव से ही नग्न, बाहिरी लिंग से क्या कार्य हो। हो नाश कर्म प्रक ति समूह का, भाव एवं द्रव्य से ।।५४ ।। 崇明崇崇明崇明崇明崇勇戀戀戀戀兼業助兼崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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