SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग - २) ही है। आत्मा में दर्शन त्रिकाल है, ज्ञान त्रिकाल है, सुख त्रिकाल है, बल त्रिकाल है। उसका आश्रय करके चार पर्यायें प्रगट करके, हे जीव! तू ऐसा मनन कर जिससे तू परम पवित्र हो जाये.... जिम परु पवित्तु, परु पवित्तु । अपने आत्मा को भूलकर इसमें सब किया है।‘अपने को आप भूलकर हैरान हो गया।'' अपने को आप भूलकर हैरान हो गया।' भगवान आत्मा कैसा है? – उसकी परवाह ही नहीं है, बस ! ऐसा करो, ऐसा करो । 1 - ९३ दया पालो, भक्ति करो, व्रत करो... परन्तु तू कौन है ? पहले यह तो पहचान। यह तो ठीक, मन्द राग, पुण्य है। समझ में आया ? कहते हैं कि अपना भगवान आत्मा, उसकी चार गुण से आराधना करना और चार कषाय और संज्ञा को छोड़ना । निश्चयनय से जगत् को देखना का अधिक अभ्यास करे । वस्तु स्वरूप को विचार करके किसी अपराधी पर क्रोध न करके... उन चार कषायों का निषेध करना है न! ... उसको सुधारने का प्रयत्न करे। यह तो ठीक। सुधारने का प्रयत्न कौन करे ? जैसे रोगी पर दया रखनी चाहिए, वैसे अपराधी मनुष्य पर दया रखनी चाहिए। जैसे रोगी प्राणी होवे तो दया आती है न! अरे... ! यह प्राणी...! कलकत्ता में होता है न ? हाथ काट दें, यहाँ से पैर काट दें, लड़कों को - बच्चों को ले जाकर काट दें। फिर गाड़ी में ... गाड़ी होती है न ? लकड़ी की । उसमें डाल दें, खीचते हैं, फिर अन्य को दया आती है.... अर...र..र...! पच्चीस-पचास रुपये इकट्ठे हों, एक दिन में सौ-सौ डेढ़ सौ (इकट्ठे होते हैं)। उसमें फिर मालिक हो, वह बाँट लेता है। जमादार और पुलिस और... ऐसी कार्यवाही चलती है। किसी का बालक ले लेते हैं । हमने एक बार भावनगर में देखा था । इतना शरीर, लोगों को इतनी दया आती कि अर...र..र... ! अरे... ! चार आने दो, आठ आने दो, केला खिलाओ, रुपया दो। इस प्रकार अपराधी पर दया करना । जैसे, रोगी पर दया आती है, वैसे अपराधी (जीव) रोगी, महारोगी है ; भावरोगी है। समझ में आया ? यह तो चार कषाय का त्याग बताते हैं न? भावरोगी पर क्रोध नहीं करना । है ? मुमुक्षु : अपराध स्पष्ट दिखता हो तो ? उत्तर : उसमें तुझे क्या है ? वह अपराधी है, तुझे क्या ? अरे ... ! वह अपराध करता है, उसे उसका कठोर फल भोगना पड़ेगा, ऐसी दया करना । मरते को मारना ? लोग नहीं
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy