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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) तिहिं रहियउ तिहिं गुण सहिउ जो अप्पाणि वसे । सो साय सुह भायणु वि जिणवरूएम भणेइ ॥ ७८ ॥ ८५ राग-द्वेष-मोह से रहित होकर... पहले दो लिये थे राग-द्वेष। यह मोह (कहकर तीन कहे) । मोह (अर्थात्) मिथ्यात्व । राग-द्वेष और मिथ्यात्व तीन को छोड़कर, तीन गुण - सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र सहित आत्मा में जो निवास करता है... जो कोई मिथ्यात्वभाव छोड़कर अपनी आत्मा में सम्यग्दर्शनसहित निवास करता है, राग-द्वेष छोड़कर स्वरूप की स्थिरता में निवास करता है, आत्मा में स्थिररूप निवास करता है, वह अविनाशी सुख का भाजन होता है। वह पात्र हो गया। अब केवलज्ञान प्राप्त करने का पात्र हो गया। समझ में आया ? यहाँ तो सत्य - निश्चय की बात है न! यह व्यवहार को तो याद करना नहीं है, वह तो बीच में विकल्प आता है, वह तो बन्ध का कारण है। - जिसे आत्मा की परमानन्ददशारूपी मुक्ति की चाहना है, जिसे आत्मा की अनन्त आनन्दरूपी मुक्ति की चाहना है, उसे राग-द्वेष-मोह का लक्ष्य छोड़कर अपने भगवान आत्मा का दर्शन - ज्ञान - चारित्र प्रगट करना । आहा... हा... ! अनादि से स्वयं की आँख बन्द है और अनादि से पर को देखता है । पर को देखने की आँख बन्द करके अपने को देखना - - ऐसा कहते हैं। समझ में आया ? भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्य - आनन्दकन्द प्रभु, उसे अनादि से अपने ज्ञानचक्षु बन्द करके, कभी देखा नहीं। राग-द्वेष, पुण्य-पाप, शरीर, वाणी, मन, भोग - ऐसा देखा, वह तो अज्ञान है। एक बार अपने ज्ञान नेत्र को खोलकर, ज्ञान नेत्र को खोलकर अपने चैतन्य आनन्दकन्द स्वरूप को देखकर प्रतीति करना, उसका ज्ञान करना और उसमें लीन होना, इसका नाम सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र है, वह मुक्ति का पात्र है। भाजन कहा है न ? भाजन । शाश्वत् सुख का भाजन है । अल्पकाल में उसे शाश्वत् सुख की प्राप्ति होगी । मुमुक्षु : लगावे तब आँख खुले न ? उत्तर : लगावे कौन ? आत्म स्वयं लगावे । अपने ज्ञाननेत्ररूप चक्षु आत्मा स्वयं खोले, दूसरा कौन खोले ? क्या करे ? गुरु अपनी पर्याय करे, दूसरे का क्या करे ? मुमुक्षु :
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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