SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा - ७६ मेरी स्वामित्व की चीज-वस्तु, उसकी चौड़ाई, उसकी अवस्था, उसकी शक्तियाँ, उनका मैं मालिक हूँ; इस प्रकार चार भेद से विचार करना, यह भी व्यवहार और विकल्प है। आहा...हा...! समझ में आया ? ७० पाँच प्रकार से विचार करें तो अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र और अनन्त वीर्य... लो, इस प्रकार लिया है। ऐसा स्वरूप है। भगवान आत्मा अनन्त दर्शनस्वरूप, अनन्त ज्ञानस्वरूप, क्षायिक समकितस्वरूप क्षायिक चारित्ररूप दो ऐसे लिये और अनन्त वीर्यस्वरूप । अथवा उसमें औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, औदयिक और पारिणामिक इन पाँच भावरूप में परिणमन की शक्ति है... यह दूसरे पाँच लिये, दूसरे पाँच लिये । वे भी पाँच लिये और वह भी पाँच लिये । अथवा भगवान आत्मा उपशमस्वरूप से होने की शक्ति है, उपशमसमकित और उपशमचारित्र होने की शक्तिवाला है । क्षयोपशमदर्शन, ज्ञान और आनन्द के होनेवाली शक्तिवाला है । क्षायिकसमकितदर्शन और चारित्र के होने की शक्तिवाला है । औदयिकउसमें योग्यता, पर्याय में राग होने की उसकी पर्याय में योग्यता है। समझ में आया ? कर्म के कारण नहीं, परपदार्थ के कारण नहीं । कल थोड़ा लेख आया है। कर्म के कारण विकार नहीं होता - ऐसा 'सोनगढ़' कहता है।‘सोनगढ़वाले' ऐसा कहते हैं । 'सोनगढ़वाले !' कल ही आया था। क्या है ? ‘जैनदर्शन' में। इक्कीस बोल का उत्तर देते हैं। प्रभु ! तू कहता है, वह तो सब कहते थे । 'संवत्' 2006 की साल में 'रामविजय' भी कहता था कि आठ कर्म के कारण भटकता है, ऐसा भगवान कहते हैं । तुम कहते हो कि नहीं, अपने अपराध से भटकता है। लो ! उस दिन 2006 की साल में 'पालीताना' में विवाद उठा था, सोलह वर्ष पहले । समझ में आया? 'दामोदर सेठ' भी कहता था 'कर्म के कारण विकार होता है, अधिक तो तुम उनपचास प्रतिशत कर्म का रखो और इक्यावन प्रतिशत पुरुषार्थ का रखो - ऐसा कहते थे। यद्यपि दोनों का आधा-आधा रखना चाहिए परन्तु तुम्हारे बहुत जोर देना हो तो ऐसे इक्यावन रखो।' कहा नहीं, हराम है। एक भी प्रतिशत उसका कम नहीं और इसका भी कम नहीं। सौ के सौ प्रतिशत कर्म के कर्म में और विकार के विकार में है।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy