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________________ ६५ योगसार प्रवचन (भाग-२) यह एक ही काल में अपने को वह सर्व पदार्थों को देखने-जाननेवाला है। भगवान आत्मा एक ही काल में सबको जाननेवाला और देखनेवाला है। किसी को अपना माननेवाला या किसी को अपने में मिलानेवाला यह उसके स्वभाव में नहीं है - ऐसा कहते हैं। उसके स्वभाव में जानना-देखना है - ऐसा कहते हैं। ऐसा भेद का विचार करना। उसका स्वभाव जानना-देखना है। अनन्त लोकालोकादि पदार्थ हों, उसमें कहीं जाननेदेखने के अतिरिक्त उसका स्वभाव, यह मेरा (और) मैं उसका - ऐसा उसके स्वरूप में नहीं है। समझ में आया? ओहो...! आत्मवस्तु जाननहार और देखनहार - ऐसा स्वभाव धारक आत्मा है। वह किसी पर को अपना माननेवाला - ऐसे स्वभाव का धारक नहीं है। वैसे ही मैं पर का हूँ - ऐसा कोई स्वभाव धारक नहीं है परन्तु मैं मुझे और पर को जानने-देखने के स्वभाव का धारक हूँ, रखनेवाला हूँ - ऐसा भेद, उसे व्यवहार कहते हैं। आहा...हा...! मांगीलालजी ! अद्भुत बात ! यह उन वीतराग का व्यवहार! दूसरे सब चिल्लाते हैं, 'अरे... अरे...!' भगवान ! सुन न, भाई! निश्चय की दृष्टि और अनुभव होने पर (भी) स्थिर नहीं रह सके, तब बीच में व्यवहार-बन्ध के कारण के भाव आवें, वे भी बन्ध के कारण के भाव हैं । उनका उत्साह क्या? जिसका खेद हो, उसका उत्साह क्या? क्या कहा? व्यवहार बीच में आता है, खेद है कि बीच में आता है। ऐसा कहा है न? वह हेतु है। ओ...हो...! भगवान आत्मा मेरा ध्रुवस्वभाव जिसमें एकरूपपना त्रिकाल (रहा है), उसके अन्तर में - ध्रुव में एकाकार (होना), उसी में रुचि, उसका ज्ञान और उसकी रमणता (करना), वही वस्तु है, वही कर्तव्य है; वह मोक्ष के लिये कारणरूप भाव है परन्तु कहते हैं कि भाई! उसमें स्थिर नहीं रह सके. कमजोरी- परुषार्थ की बहत कमजोरी है. इसलिए उसे व्यवहार आवे तो ऐसा विचार करना। यह तो जानने-देखनेवाला, जानने-देखनेवाले भाव / गुण का धारक आत्मा है - ऐसा विचार-विकल्प आता है। आहा...हा...! समझ में आया? समस्त लोकालोक - राग से लेकर देव-गुरु-शास्त्र, स्त्री, कुटुम्ब-परिवार या छह द्रव्य सब - मैं अपने में रहकर जानता-देखता हूँ। मैं अपने में रहकर जानू-देखू - ऐसे स्वभाव का धारक, वह मैं आत्मा हूँ। उसे ऐसे विचार को भी व्यवहार कहा जाता है।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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