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________________ गाथा-७६ उस आत्मा को... उस अपने आत्मा को दो, तीन, चार, पाँच नौ, सात, छह, पाँच, और चार गुणसहित जानें। यहाँ तो व्यवहार से विचार करे तो उसका विचार करे - ऐसा कहते हैं। समझ में आया? बीच में भक्ति का, पूजा का, दान का व्यवहार आवे, वह अलग बात है परन्तु इसे व्यवहार करना तो नजदीक का यह व्यवहार है। निश्चय से तो एक स्वरूप भगवान आत्मा अनन्त गुण का एकरूप स्वरूप है, उसमें एकाकार, उसका लक्ष्य करके एकाकार होना, वह वस्तु का स्वरूप और निश्चय वह है परन्तु उसमें नहीं रह सके तो उसमें जाने से पहले, स्थिरता से पहले ऐसे गुण के भेद का विचार करे, यह कहते हैं। नजदीक में नजदीक गुण के विचार करना, वह उसका व्यवहार है- ऐसा यहाँ कहते हैं। भाई! दसरा जो भक्ति. व्रतादि का व्यवहार हो या बाहर का अमुक हो। समझ में आया? आत्मा के ध्यान के लिये आत्मा के स्वरूप की भावना करना योग्य है। भगवान आत्मा, जिसमें अनन्त वीतरागता. अनन्त आनन्द - ऐसे गणों का एकरूप ऐसा आत्मा, उसे ज्ञायकभाव से भाना, एकस्वरूप से भाना वह मुख्य लक्षण है, मुख्य कर्तव्य तो यह है। समझ में आया? उसमें नहीं रह सके, तब निश्चय से यह आत्मा एक सत् पदार्थ है, ज्ञायक अखण्ड प्रकाशरूप है, केवल अनुभव योग्य है... तो वह एक अखण्ड वस्तु है, समझ में आया? धर्म कर्तव्य करनेवाले को एक ज्ञायकभावस्वभाव का अनुभव करना, वह उसका कर्तव्य है परन्तु व्यवहारनय से यह अनेक प्रकार विचारा जा सकता है... ठीक लिखा है। समझ में आया? आत्मा का कल्याण करना हो तो आत्मा कैसा है? - ऐसा पहले उसे जानना चाहिए और जानकर आत्मा के रूप में एकाग्र होना चाहिए। जिसमें से शान्ति-धर्म-हितदशा प्रगट होती है - ऐसा आत्मा पहले बराबर अनन्त गुणों का एकरूप स्वरूप जानकर उसमें ही लक्ष्य करने योग्य है परन्तु उसमें लक्ष्य करके स्थिर नहीं हो सके तो व्यवहारनय से उसे विचार आता है, भेद का विचार आता है। क्या? दो प्रकार से विचार करे तो यह गुण-पर्यायवान है। एक प्रकार से तो ज्ञायकभाव है, यह तो एक वस्तु । समझ में आया? बहुत संक्षिप्त है। यह तो 'योगसार' है
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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