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________________ आत्मा के गुणों की भावना करे बे ते चउ पंच वि णवहँ सत्तहँ दह पंचाहँ। चउगुण सहियउ सो मुणइ एयहँ लक्खण जाहँ॥७६॥ द्वि-त्रि-चार-अरु पाँच छह सात पाँच और चार। नव गुण युक्त परमात्मा, कर तू यह निराधार ॥ अन्वयार्थ - (सो) उस अपने आत्मा को (वे ते चउ पंच विणवहँ सत्तहँ छह पंचाहँ चउगुण) दो, तीन, चार, पाँच, नव, सात, छ:, पाँच और चार गुण सहित जाने (जाहँ एयहँ लक्खण) उस परमात्मा के या आत्मा के ये ही लक्षण हैं। वीर संवत २४९२, आषाढ़ कृष्ण ५, गाथा ७६ से ७७ गुरुवार, दिनाङ्क ०७-०७-१९६६ प्रवचन नं. २८ आगम का सार आ गया। आगम का यह सार है, यह योगसार । जिसे आत्मा का हित करना हो, उसे कहाँ जुड़ान करना और कहाँ से हटना? मुद्दे की बात है। जिसे आत्मा का हित अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र - ऐसा धर्म प्रगट करना हो, उसे आत्मा का स्वभाव परिपूर्ण है, उस पर उसे दृष्टि देना और रागादि, निमित्त आदि भेद आदि से दृष्टि हटाना - ऐसा यहाँ योगसार' में कहा जाता है। अब, यहाँ कहते हैं आत्मा के गुणों की शुद्ध भावना करे। यद्यपि वस्तु एक समय में पूर्ण अनन्त गुण की पिण्ड एकरूप है, वही आश्रय करने योग्य है परन्तु उसमें नहीं रह सके, तब उन गुणों के विचार करना - ऐसा कहते हैं। समझ में आया? बे ते चउ पंच वि णवहँ सत्तहँ दह पंचाहँ। चउगुण सहियउ सो मुणइ एयहँ लक्खण जाहँ॥७६॥
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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