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________________ योगसार प्रवचन (भाग - २) णिभंतु भाउ' ऐसी भावना निर्भ्रान्त कर, भ्रान्ति न कर । अरे...! पूर्ण परमेश्वर जिनेश्वर हुए उनसे मैं अलग प्रकार का होऊँगा ? जाति अलग, वस्तु तो वह की वह है तेरी दशा में तूने प्रगट नहीं की, उन्होंने प्रगट की है तो शक्ति से तो सभी तत्त्व (आत्मा) समान ही है। ऐसा मैं वह आत्मा परमेश्वर हूँ और परमेश्वर वही मैं हूँ । आहा... हा... ! यह - वह किस दृष्टि के जोर से स्वीकार करे ? यह ज्ञान... यह जानना... जानना... जानना... जानना... जानना... जानना... यह जानना... जानना... जानने की शक्ति की बेहदता, अचिन्त्यता, अमापता, वह मैं । उस ज्ञान के साथ रहनेवाला आनन्द भी साथ है । वह अतीन्द्रिय आनन्द - बेहद आनन्द-पूर्ण आनन्द वह मैं हूँ। ऐसी वस्तु की दृष्टि का स्वीकार होने से उसकी पर्याय में अर्थात् दशा में सत्य का स्वीकार होने पर सत्य दशा प्रगट होती है, उसे धर्म कहा जाता है। आहा...हा... ! अद्भुत व्याख्या भाई धर्म की ! उसे अहिंसा कहा जाता है अर्थात् जो आत्मा का पूर्ण ज्ञान आनन्द आदि स्वभाव है ऐसा अस्वीकार और राग-द्वेष का जितना स्वीकार, उसका नाम अपने पूर्ण स्वभाव का अनादर वह उसकी हिंसा है। समझ में आया ? अरे... ! हिंसा, अहिंसा की यह फिर कैसी व्याख्या ? ५३ स्वयं चैतन्य पूर्णानन्द प्रभु, जिसकी पीपल में (शक्ति में ) चौसठ पहरी चरपराहट और हरापन भरा है, इससे इनकार करे तो वह उसका खून करता है। अस्ति की नास्ति करता है। इसी तरह भगवान आत्मा में पूर्ण शान्त, आनन्दकन्द ज्ञानानन्द पूर्ण ध्रुव है, उसका निषेध करे, उसकी नास्ति करे... नास्ति करे का अर्थ कि उसकी हिंसा करता है पर की हिंसा कौन कर सकता था ? धूल । वह तो उसकी दशा होने की हो तब होती है। पर की दया भी कौन पालन कर सकता था ? भाव करे, भाव करे इसलिए वहाँ पर की दया पल जाती है ? तब तो कोई मरेगा किस लिये ? डाक्टर किसलिए मरने देगा ? डाक्टर स्वयं किसलिए मरेगा ? शशीभाई! तुम्हारे वे डाक्टर थे या नहीं ? वैद्य, सर... सर... सर... क्या कहलाते हैं वे ? सर्जन । किसी का आपरेशन करते थे, यहाँ आये थे, तीन-चार बार आ गये हैं। सर्जन, 4 'भावनगर' किसी का (आपरेशन) करते थे, वहाँ ( कहने लगे) 'मुझे कुछ होता है ' उड़ गये ! स्वयं गये।‘भावनगर' में अस्पताल में स्वयं मर गये । सुना है न ? भाई ! यहाँ आये
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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