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________________ गाथा-७४ आनन्द और शान्तरस का कन्द है। समझ में आया? उसे देखने पर दृष्टि में एक ही वस्तु दिखती है, पूर्ण... पूर्ण... पूर्ण... पूर्ण... बस! इस दृष्टि से देखने पर आत्मा को सम्यग्दर्शन और शान्ति की दशा प्रगट होती है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। समझ में आया? इस दृष्टि से देखने पर आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध न कभी था, न है, न होगा। कर्म है परन्तु वस्तुदृष्टि से देखा जाये तो कर्म का सम्बन्ध आत्मा को है ही नहीं। भगवान पूर्णानन्द प्रभु है परन्तु उस दृष्टि का जोर कहाँ से लाना? कर्म का सम्बन्ध होने पर भी नहीं। आहा...हा...! पुण्य-पाप के जैसे भाव करता है - दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा वह शुभभाव है पुण्य है, उससे पुण्य बन्धन होता है, कर्म रजकण (बंधते हैं)। हिंसा, झूठ, चोरी, विषयभोग, वासना वह पापभाव है, उससे पापबन्धन (होता है)। परन्तु वह कर्म रजकण है, वह रजकण है, वह कहीं आत्मा की मूल चीज नहीं है तथा जिस कारण से कर्म बँधा, ऐसा भाव वह भी कृत्रिम विकार है, उसके लक्ष्य से नहीं देखकर वस्तु की दृष्टि से देखो तो उसे कर्म का सम्बन्ध भी नहीं है। कर्म (का सम्बन्ध) था भी नहीं, सम्बन्ध तीन काल में नहीं हैं। यह तो नहीं परन्तु विकार की वृत्ति जो उत्पन्न होती है, वह भी वस्तु की दृष्टि से देखने पर उसमें नहीं है। इतनी दृष्टि के जोर से जब आत्मा का स्वीकार हो, उस दृष्टि के जोर से यह आत्मा परिपूर्ण अखण्डानन्द एकरूप है – ऐसा दृष्टि के जोर से स्वीकार होता है, विकार और कर्म का सम्बन्ध मुझे है ही नहीं ऐसी दृष्टि होने पर उसे अन्तर में सम्यग्दर्शन, ज्ञान और शान्ति का अंश, शान्ति का कण अन्तर में से प्रगट होता है। कौन कहता है (बाहर में सुख है)? धूल में भी सुख नहीं है, सुख तो यहाँ है । मर गया बाहर में, सुख (खोजकर) । वह आत्मा में होता है, या आत्मा का सुख पर में होता है? धूल में सुख होता है ? इस शरीर में, मांस में, हड्डियों में, पैसे में, दाल, भात, मौसमी, मक्खन, रेशम के गद्दे, धूल में सुख होगा? इसका सुख वहाँ होगा? इसे खबर नहीं है। आत्मा में इसका अतीन्द्रिय आनन्द से भरपूर वह तत्त्व है, सच्चिदानन्दस्वरूप - सत् शाश्वत्, चिद - ज्ञान और आनन्द, अतीन्द्रिय आनन्द का रसकन्द परिपूर्ण प्रभु आत्मा है। समझ में आया? इस दृष्टि से देखने पर कर्म के सम्बन्ध के और कर्म के सम्बन्ध से
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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