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________________ ४४ गाथा-७४ संयोग नहीं दिखता है। इस ओर है भाई! वस्तु दृष्टि से देखें, जैसे उस पीपल को उसकी शक्ति के सत्व से देखें तो वह काली और अल्प चरपराहट उसमें नहीं है, उसमें तो पूर्ण चरपराहट से भरपूर और पूर्ण हरे रंग से भरपूर वह तत्त्व है। ऐसे ही भगवान आत्मा को वस्तु से देखें, उसके पदार्थ के सत्व से देखें तो उसे कर्म के संग से (हुआ) विकार वह उसमें है ही नहीं। ऐसे ही कर्म के घटने से, पुरुषार्थ से कहीं कर्म घटते हैं और विशुद्धि थोड़ी बढ़ती है ऐसे भङ्ग भी जिस अन्तर वस्तु में नहीं हैं, जैसे पीपल में दो पहरी, पाँच पहरी, दस पहरी प्रगट होती है परन्तु वे सब भङ्ग अन्तर में ऐसे नहीं हैं । अन्तर में तो पूर्ण, पूर्ण, पूर्ण, पूर्ण पड़ा हुआ है । शशीभाई! मुमुक्षु : दृष्टान्त में तो बात बैठ जाती है? उत्तर : वह दृष्टान्त (किसलिए देते हैं)? दृष्टान्त के लिये दृष्टान्त है? या सिद्धान्त के लिये दृष्टान्त है? सिद्धान्त के लिये दृष्टान्त है या दृष्टान्त के लिये दृष्टान्त है ? दृष्टान्त में से अमुक सिद्धान्त निकालने के लिये दृष्टान्त है। समझ में आया? कहते हैं, यदि भगवान आत्मा को वस्तु दृष्टि से देखें, यथार्थ दृष्टि से अन्तरदृष्टि करने से अन्तर पूर्ण ज्ञान आनन्द से देखें, तो उसे कर्म का संयोग और उसके निमित्त से स्वयं पुरुषार्थ से उलटा विकार, पुण्य-पाप करे और अल्पज्ञपना, यह सब उसमें पूर्ण दृष्टि से देखें तो नहीं है। समझ में आया? इस दृष्टि से कर्म सापेक्ष हो जाते हैं। कर्मों की अपेक्षा न लेनेवाले द्रव्यार्थिकनय में इस क्षायिकभाव का भी विचार नहीं आ सकता। जरा सूक्ष्म बात है। आत्मवस्तु, उसकी पूर्ण शक्ति का सत्व देखने से उसकी प्रगट अवस्था जो राग का अभाव होकर, कर्म का अभाव करके, पुरुषार्थ द्वारा जो दशा प्रगट होती है; वह दशा भी क्षणिक अवस्था की पूर्णता है, क्षणिक अवस्था की पूर्णता है, सम्पूर्ण पूर्णता नहीं है। समझ में आया? कभी इसने अपनी जाति क्या है ? उसे देखा नहीं, बाकी पढ़-पढ़ कर पढ़े सब जगत के व्यर्थ और शास्त्र पढ़े परन्तु शास्त्र में से क्या निकालना है, इसका पता नहीं है। यह भगवान आत्मा एक सेकेण्ड के असंख्य भाग में पूर्ण आनन्द और पूर्ण ज्ञान और पूर्ण शान्ति के, पूर्ण स्वच्छता के, पूर्ण प्रभुता के सामर्थ्य से - स्वभाव से भरपूर वह
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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