SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ४३ आत्मादेव को देखें तो इस शरीर से दिखता है परन्तु उसे शरीर से नहीं देखना चाहिए, कहते हैं। समझ में आया? अथवा संयोगी कर्म के कारण भी उसमें विकार या कोई विशुद्धि ऐसी दशा के भेद दिखें उन भेदों को न देखकर अकेला चैतन्यद्रव्य स्वभाव, वस्तु स्वभाव देखें तो अभेद अखण्ड आनन्दकन्द है। उस पर दृष्टि देने से आत्मा को शान्ति होती है, सम्यग्दर्शन होता है और स्वतन्त्र सुख की अन्तर में जो शक्ति पड़ी है, उसमें अन्तर एकाकार होने पर अन्तर के आनन्द की झलक, उसकी श्रद्धा के ज्ञान में अन्तर में ढलने पर होती है। जैसे पीपल को घोंटने पर जैसे पाँच-दस पहरी, पच्चीस पहरी होती है, अन्त में चौंसठ पहरी होती है, अन्त में त्रेसठ है न? त्रेसठ का व्यय, त्रेसठ का अभाव होकर चौंसठ हुई है। उस त्रेसठ में से चौसठ नहीं आयी है। थोड़े में से अधिक नहीं आयी है। त्रेसठ गयी और चौसठ हुई वह चौसठ, अन्दर में से, शक्ति में से आयी है। समझ में आया? ऐसे भगवान आत्मा, अन्तर में यह जो अल्पज्ञान बाहर में प्रगट दिखाई देता है, राग दिखता है, वह राग इसकी वस्तु नहीं है, विकृतभाव है। अल्पज्ञान दिखता है उतना व्यय नहीं है। क्योंकि अन्तर में एकाकार होने पर ज्ञान की शक्ति की व्यक्तता प्रगटता विशेषता दिखती है, तो वह विशेष ज्ञान की दशा दिखती है, वह पूर्व की दशा गयी उसमें से नहीं आती; वह विशेष शक्ति में से अन्दर शक्ति पड़ी है उसमें एकाकार होने पर ज्ञान की कला की उग्रता जो प्रगट दशा में होती है, उस कला का धाम वह चैतन्य द्रव्य और ध्रुव स्वभाव है। उसकी खान में से वह कला प्रगट होती है। समझ में आया? यह आत्मा कैसा है? इसने कभी अनन्त काल में जाना नहीं है। समझ में आया? 'नरसिंह मेहता' कहते हैं न? 'ज्या लगी आत्मतत्त्व जान्यों नहीं, त्यां लगी साधना सर्व झूठी'। भाई! सुना है न? है? 'जब तक आत्मतत्त्व जाना नहीं, तब तक साधना किसकी? शुं करयो तीर्थने तप करवा थकी?'। तेरे सब व्रत और नियम शून्य है, ऐसा कहते हैं। समझ में आया? यात्रा, भक्ति, पूजा, और भगवान के समक्ष घण्टा बजाना... परन्तु यह आत्मा क्या है ? ऐसे तत्त्व के सामर्थ्य के अनुभव और प्रतीति के बिना यह सब निरर्थक चार गति में भटकने के लिये है। समझ में आया? इसलिए यहाँ कहते हैं, भगवान आत्मा... द्रव्यदृष्टि से जीव के साथ कर्मों का
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy