SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 425
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्पादकीय परम पूज्य श्रीमद् योगीन्द्रदेव द्वारा रचित योगसार शास्त्र पर, अध्यात्ममूर्ति जीवनशिल्पी अनन्त उपकारी पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी के अध्यात्मरस से भरपूर योगसार प्रवचन का शब्दश: हिन्दी प्रकाशन साधर्मीजनों को स्वाध्याय हेतु समर्पित करते हुए अत्यन्त हर्ष हो रहा है। वीतरागी सन्तों की पावन परम्परा में हुए श्रीमद् योगीन्द्रदेव, अध्यात्म के ख्याति प्राप्त आचार्य हैं, किन्तु स्वरूपगुप्त आचार्य के सन्दर्भ में कुछ विशिष्ट उल्लेख के अभाव में उनके जीवन के सन्दर्भ में उनके अन्तरंग के अतिरिक्त उनकी कृतियाँ ही एकमात्र सहारा हैं। जिनके परिशीलन एवं अन्य सन्दर्भो के आधार पर श्रीमद् योगीन्द्रदेव का समय ईसा की छठवीं शताब्दी ज्ञात होता है। आचार्यश्री ने अपने ग्रन्थों की रचना तत्कालीन अपभ्रंश भाषा में करके उन्हें जनसामान्य के लिए अधिक उपयोगी बनाया है। आचार्य योगीन्द्र कृत परमात्मप्रकाश, योगसार एवं नौकार श्रावकाचार (अपभ्रंश) तथा अध्यात्म संदोह, सुभाषिततन्त्र व तत्वार्थ टीका (संस्कृत) सर्वमान्य रचनाएँ हैं, साथ ही दोहापाहुड़ (अपभ्रंश), अमृताशीति (संस्कृत) तथा निजात्माष्टक (प्राकृत) - ये तीनों रचनाएँ भी आपके नाम पर प्रकाश में आयी हैं, किन्तु इन तीनों के रचनाकार ये ही योगीन्द्र हैं या अन्य कोई - यह अभी तक शोध-खोज का विषय है। प्रस्तुत योगसार ग्रन्थ 108 दोहों की संक्षिप्त किन्तु सारभूत रचना है। आचार्यदेव के अनुसार जो जीव भवभ्रमण से भयभीत हैं, उनके लिए इस ग्रन्थ की रचना की है। साथ ही अन्तिम दोहे में आत्मसम्बोधन हेतु दोहे रचना का उल्लेख भी किया है। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों की सरल भाषा में अभिव्यक्ति की गयी है। वर्तमान में पूज्य गुरुदेवश्री के द्वारा चर्चित अध्यात्म के अनेक विषयों का इसमें स्पष्ट उल्लेख प्राप्त है। पुण्य-पाप की एकता के सन्दर्भ में पुण्य को भी पाप कहनेवाला कोई विरला ही होता है (दोहा 71)- यह उल्लेख पुण्यभाव में धर्म माननेवाले अज्ञानी जीव को सही दिशा बोध देता है।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy