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________________ गाथा - १०६ समभाव ही मोक्ष का उपाय है। यह भाव (समभाव ) लाने के लिए साधक को व्यवहारदृष्टि से भेद है... उसने स्वयं ऐसा डाला है। ऐसा जानने पर भी, ऐसा धारणा में रखने पर भी इस दृष्टि का विचार बन्द करके, निश्चयदृष्टि से अपने आत्मा को और सर्व संसारी आत्माओं को देखना चाहिए। अपने आत्मा को जिस प्रकार व्यवहार के भेद गौण करके... अभाव करके नहीं, वस्तु के स्वभाव को अभेदरूप देखना – ऐसे ही दूसरे आत्माओं को भी इस प्रकार देखना । यह आत्मा है, यह तो शुद्ध आनन्दघन ही सब है - ऐसी दृष्टि करके अपने आत्मा को और सर्व संसारी आत्माओं को देखना चाहिए। एक समान शुद्ध निरंजन निर्विकार पूर्ण ज्ञान - दर्शन, वीर्य और आनन्दमय अमूर्तिक असंख्यात प्रदेशी.... यह असंख्यात प्रदेश तो समझाया है। असंख्य प्रदेश... असंख्य प्रदेश... यह भी एक भेद है परन्तु वस्तु ऐसी है - ऐसा ज्ञान व्यवहार से होने पर भी, अन्तर में एक ज्ञानाकार देखना । वस्तु एक ज्ञानस्वरूप ही चैतन्यबिम्ब है - ऐसा अन्तरदृष्टि से देखना, जानना, अनुभव करना। समझ में आया ? उसे ही परमदेव मानना.... ऐसा विशेष, फिर अपनी बात थोड़ी की है। ४०० समाधिशतक की थोड़ी बात की है। जो कोई अपने शुद्धस्वरूप के अनुभव से छूटकर परभावों में आत्मपने की बुद्धि करता है ... भगवान आत्मा ज्ञाता-दृष्टा शुद्ध ब्रह्म आनन्दकन्द है – ऐसी दृष्टि छोड़कर, वर्तमान अल्पज्ञ पर्याय में और पुण्य-पाप के परिणाम में आत्मबुद्धि करता है, वह स्वरूप से भ्रष्ट होता है। समझ में आया ? अपने में कषाय जागृत करता है.... ऐसी बुद्धि करने में कषाय की उत्पत्ति करता है । मिथ्यात्व, मोह कषाय अर्थात् मिथ्यात्व कषाय है । अपना स्वभाव शुद्ध चैतन्यधाम है, उसे भूलकर अकेले व्यवहार के पक्ष में अपने आत्मा को स्थापित करता है, उसे मिथ्यात्वरूपी कषाय का भाग लग जाता है, उसे मिथ्यात्व उत्पन्न होता है। समझ में आया ? मूर्ख बहिरात्मा इस दृश्यवान जगत के प्राणियों को तीन लिंगरूप - स्त्री, पुरुष, नपुंसक देखता है.... मुमुक्षु - असंख्य प्रदेश तो स्वभाव है। उत्तर वह भी एक कहा, स्वभाव है परन्तु असंख्य प्रदेश – ऐसा लक्ष्य न करना, ज्ञान करना । 1
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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