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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ३९१ इसलिए आचार्य लेते हैं, देखो! 'सो सिउ संकरू-विण्हु' 'सो' शब्द प्रयोग किया है पहला। वही आत्मा, वह जो आत्मा पहले कहा, पंच परमेष्ठी के स्वरूप से ध्यान करने योग्य, ऐसा कहा। 'सो सिउ, सो संकरु, सो विण्हु सो सो रुद्द वि सो बुद्ध, सो जिणु ईसरु बंभु सो, सो अणंतु सो सिद्धं' देखो! आचार्य ने एक-एक शब्द में 'सो' शब्द लिखा है। फिर ब्रह्मा, विष्णु वह आत्मा - ऐसा नहीं। ऐसा जो आत्मा कहा... समझ में आया? अरे भाई! यह तो वस्तु की स्थिति है। भगवान ने देखा इसलिए कुछ कहा दूसरा और देखा दूसरा – ऐसा नहीं है। ऐसी चीज ही है। अनादि स्वभाव के - छह प्रकार के स्वभाव का पिण्ड वह छह द्रव्य है। छह प्रकार के स्वभाव के पिण्ड छह द्रव्य, ऐसी अनादि वस्तु है। उसका एक-एक आत्मा अनन्त-अनन्त गुण का पिण्ड है। अनन्त... अनन्त किसे कहते हैं ? आहा...हा...! आकाश आकाश आकाश आकाश आकाश कहीं 'है' मैं से 'नहीं' आवे ऐसा नहीं है। उससे अनन्त गुने गुण... क्षेत्र इतना ऐसा न लो, क्षेत्र भले ही इतना हो – क्षेत्र असंख्यात प्रदेशी, उसके गुणों की-जैसे यहाँ प्रदेश का कहीं अन्त नहीं है, यह उससे अनन्तगुने (गुण हैं)। उसके अन्त को क्या कहना? ऐसे अनन्त-अनन्त गुण का स्वरूप – पिण्ड भगवान का निर्मल परिणमन होना, उसे यहाँ वास्तव में आत्मा कहते हैं। समझ में आया? वही शिव है... ऐसा शब्द पड़ा है न? देखो ! वही शिव है... यह शिव है, ऐसा नहीं। जो दुनिया में शिव कहलाते हैं, वे आत्मा - ऐसा नहीं। ऐसा आत्मा, उसे शिव (कहते हैं)। भगवान ऐसी बात है। समझ में आया? क्योंकि शिव अर्थात् निरूपद्रव कल्याणस्वरूप है। वह कल्याण का कर्ता है, उसका ध्यान करने से अपना हित होता है। समझ में आया? इसलिए आत्मा भी स्वयं शिव है परन्तु ऐसा आत्मा, हाँ! आहा...हा...! एक समय में द्रव्य जो शक्तिवान् । द्रव्य अर्थात् शक्तिवान्; शक्तियाँ अनन्तानन्त और उनका परिणमन भी जितने गुण उतना अनन्तानन्त, जिसकी एक समय में पर्याय। एक समय में, हाँ! वैसे त्रिकाल वह अलग बात है। एक समय में अनन्तगुण की पर्यायें कितनी? कि लोक के आकाश के, अलोक के आकाश के प्रदेश से भी एक समय की
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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