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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) आया? वह तो राग है, सम्पराय तो राग है । वही अविनाशी सुख का स्थान है। लो ! आहा... हा...! एकदम यथाख्यात है न! ऐसी यथाख्यातरूपी निर्मल वीतरागी पर्याय का तो बिम्ब आत्मा है, अकेला अकषायरस, समझ में आया ? ३७५ ऐसे भगवान आत्मा के अन्तर अवलम्बन में से पूर्ण वीतरागता प्रगटी और जहाँ अंश लोभ का भी था, उसका व्यय हुआ, वीतरागता का उत्पाद हुआ, वीतरागस्वरूप ध्रुव तो कायम पड़ा है। यहाँ विलय आया न ! और परिणाम है, इसलिए उत्पाद - व्यय कहा । समझ में आया? भगवान आत्मा ध्रुवस्वरूप है, वह तो अकेला समदर्शी स्वभाव है। समरसी ज्ञातादृष्टा, वह समरसी स्वभाव है । उसमें जो लोभ का अंश बाकी था, उसका विलय करके - व्यय करके और वीतरागी पर्याय का उत्पाद होना, उसे यथाख्यातचारित्र कहते हैं । वह साक्षात् मोक्ष का कारण है । कहो, इसमें समझ में आया ? यह चारित्र का भेद है और यह प्रकार है - ऐसी बात दूसरे में नहीं हो सकती, क्योंकि गुण की शुद्धि की वृद्धि के प्रकारों के यह सब नाम हैं। पर्यायशुद्धि होती है, वह बात अन्यत्र नहीं हो सकती । समझ में आया ? समय-समय की शुद्धि का यहाँ तो मिलान करना है। जिसे आत्मस्वभाव शुद्ध ध्रुव चैतन्य, जिसे अवलम्बन दृष्टि - ज्ञान में आया और उसका आश्रय लेकर जिसने वीतराग समभाव... समभाव... ओ...हो... ! समझ में आया ? दसवें गुणस्थान की भूमिका में अबुद्धिपूर्वक जरा राग रहा और उसका नाश होकर वीतरागपर्याय की प्रगट प्रसिद्धि; जैसा स्वभाव है, वैसी पर्याय की प्रसिद्धि अकषाय की हुई वह सूक्ष्म यथाख्यातचारित्र (जानो) । वही अविनाशी सुख का स्थान है। लो ! अविनाशी सुख का स्थान वह चारित्र है। उस चारित्र का प्रकार है । अन्य कहते हैं, अपने राम... राम... राम... राम... भगवान... भगवान... भगवान... भगवान करो। मोक्ष हो जायेगा समझ में आया ? (अन्य कहते हैं) राम से साक्षात्कार... वह राम यह। 'निजपद रमै सो राम कहिये' समझ में आया ? आनन्दघनजी ने कहा है, भाई ! 'निजपद रमैं सो राम कहिये, कर्म कसे सो कृष्ण कहिये' । यह तो 'निजपद रमैं सो राम कहिये'। अपने में आता है न ? कलश में (आता है) आत्माराम । जैसे बाग में रमते हैं न ? ऐसे भगवान अपने आनन्द बाग में अन्तर रमे - शुद्धता के पर्याय
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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