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________________ गाथा - १०३ अन्वयार्थ - ( सुहुमहँ लोहहँ जो विलउ ) सूक्ष्म लोभ का भी क्षय होकर ( जो सुहुम वि परिणामु) जो कोई सूक्ष्म वीतरागभाव होता है ( सो सुहुमु वि चारित्त मुणि) उसे सूक्ष्म या यथाख्यात चारित्रजनों (सो सासय सुह धामु ) वही अविनाशी सुख का स्थान है I ३७४ ✰✰✰ I उसमें सूक्ष्मसाम्पराय लिखा है, ऐसा नहीं । इसमें ऐसा है न ? हाँ, परन्तु सूक्ष्म ऐसा नहीं। यह सूक्ष्म चारित्र अर्थात् यथाख्यातचारित्र । पहले अपने आया था, उसमें भूल की पहले शब्द ऐसा था, देखो! 'सूक्ष्म लोभ के नाश से, होय शुद्ध परिणाम, वह सूक्ष्म सम्पराय है, चारित्रसुख का धाम' – ऐसा नहीं । अपने है इसमें? सूक्ष्म चारित्र अर्थात् यथाख्यातचारित्र, ऐसा। इन्होंने इसमें सूक्ष्म सम्पराय जोड़ दिया है। सूक्ष्म शब्द पड़ा है न, जहाँ सूक्ष्म लोभ का नाश होता है, वहाँ सूक्ष्म सम्पराय होता है, किसका ? सम्पराय राग का नाम है, यह सब खोटा । मूल तो ऐसा है । सुहुमहँ लोहहँ जो विलउ सो सुहुमु वि परिणामु। सो सुहुमु विचारित मुणि सो सासय- सुह-धामु ॥ १०३ ॥ यथाख्यातचारित्र की बात करते हैं। भगवान आत्मा में ... यह अन्तिम कड़ियाँ हैं न (इसलिए) ठेठ तक लेकर, यथाख्यात तक ले जाकर), स्वयं भगवान ब्रह्मा और विष्णु स्वयं ऐसा करके पूरा करेंगे। सूक्ष्म लोभ का भी क्षय होकर .... यह चारित्र की उत्कृष्ट व्याख्या यथाख्यात्चारित्र। यथाख्यात जैसा स्वरूप अन्दर प्रसिद्ध है अकषाय, अविकारी, वीतराग, समभाव (स्वरूप) ऐसी पर्याय में यथा - प्रसिद्धि वीतरागरूप होना, उसे यथाख्यातचारित्र कहा जाता है। कहो, समझ में आया ? दसवें गुणस्थान में जो सूक्ष्म लोभ रहता है, उसका भी विलय होकर सुहुमु वि परिणामु – जो कोई सूक्ष्म वीतरागभाव होता है... ऐसा लेना । सूक्ष्म लोभ का अंश जो दसवीं भूमिका में - गुणस्थान में होता है, उसका नाश होकर जो सूक्ष्म परिणाम प्रगट होता है, एकदम वीतराग परिणाम (प्रगट होता है), उसे सूक्ष्म अथवा यथाख्यातचारित्र जानो। उसे सूक्ष्म-बारीक वीतरागी चारित्र पर्याय जानो । सूक्ष्म सम्पराय नहीं, समझ में
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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