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________________ योगसार प्रवचन (भाग - २) ३७ यथार्थ शिवपंथ है, उस पर ही चलकर ज्ञानी मोक्ष नगर में पहुँच जाते हैं । फिर तो उनकी बात की है। ✰✰✰ देह में भगवान होता है जं वडमज्झहँ बीउ फुडु बीयहँ वडु वि हु जाणु । तं देहउँ देउ वि मुणदि जो तइलोय पहाणु ॥ ७४ ॥ ज्यों बीज में है बड़ प्रगट, बड़ में बीज लखात । त्यों ही देह में देव वह, जो त्रिलोक का नाथ ॥ अन्वयार्थ - (जं वडमज्झहँ बीउ फुडु) जैसे बरगद (बड़) के वृक्ष में उसका बीज स्पष्टपने व्यापक है (बीययं बडु वि जाण) वैसे बरगद (बड़) के वृक्ष को भी जानों (तं देहउ वि मुणहि ) तैसे इस शरीर में उस देव को भी अनुभव करो (जो तइलोय-पहाणु ) जो तीन लोक में प्रधान है। ✰✰✰ अब, ७४। इस देह में भगवान विराजमान हैं, ऐसा निश्चित करना चाहिए । तेरा भगवान तुझसे दूर नहीं है । आहा... हा...! तू पूर्ण भगवान है । दृष्टान्त देते हैं । कल आया था न ! जं वडमज्झहँ बीउ फुडु बीयहँ वडु वि हु जाणु । तं देहउँ देउ विमुदि जो तइलोय पहाणु ॥ ७४ ॥ जैसे, बरगद के वृक्ष में उसका बीज स्पष्टरूप से व्यापक है, वैसे बरगद के बीज में बरगद का वृक्ष भी व्यापक जानो । बीज में बड़ और बड़ में बीज । समझ में आया? बड़ में बीज स्पष्टरूप से पड़ा है और बीज में भी बड़ स्पष्टरूप से पड़ा है। 'तं देहहँ देउ वि मुणहि' इस शरीररूपी बड़ में तेरा यह भगवान आत्मा अन्दर विराजता है । देह नहीं, वाणी नहीं, कर्म नहीं यह पुण्य पाप के विकल्प, राग वह भी नहीं, उनसे रहित तेरी चीज भगवान देह-देवालय में; जैसे, बीज में बड़ है, बीज में जैसे बड़ है, ऐसे यह आत्मा
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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