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________________ गाथा - ७३ अनाज के ऊपर का मोटा छिलका निकाले बिना अन्दर का पतला छिलका दूर नहीं हो सकता। कोई ऊपर का छिलका ही निकाले और अन्दर का न निकाले तो उसे शुद्ध चावल नहीं मिलते... चावल होते हैं न? चावल, उसमें छिलका होता है। छिलका निकालने पर ही लालिमा होती है न ? लालिमा । लालिमा को क्या कहते हैं ? लालिमा । तुम्हारी भाषा में क्या कहते हैं ? ललाई, चावल के ऊपर की ललाई । ललाई को न छोड़े और छिलके को छोड़े उसे चावल का लाभ नहीं होता। ऐसे बाहर से वस्त्र - पात्र आदि छोड़ दे, परिवार छोड़ दे परन्तु अन्दर में राग की एकताबुद्धि नहीं छोड़े तो ललाई तो छुटती नहीं । आहा...हा...! ३६ बाहर में निर्ग्रन्थ हुए बिना अन्तरङ्ग में निर्ग्रन्थ नहीं हुआ जा सकता। बाहर से निर्ग्रन्थ हो जाये परन्तु अन्दर से निर्ग्रन्थ न हो, अन्दर में राग रहित स्वरूप की अनुभव दृष्टि न हो, वीतरागस्वभाव का अन्दर सावधानीपूर्वक आदर न किया हो तो समदर्शी नहीं होता। आत्मानन्दरसिक नहीं होता, सच्चा निर्ग्रन्थ नहीं। बाहर से निर्ग्रन्थ हो गया, नग्न हो गया, परन्तु अन्दर से निर्ग्रन्थ न हो, पुण्य परिणाम से भिन्न पड़कर भगवान आत्मा का अनुभव न किया हो, वीतरागी न हो, विशेष स्थिरता आदि न हो, समदर्शी न हो, पुण्य - पाप दोनों एक है और स्वभाव भिन्न है । आत्मानन्द रसिक न हो और पुण्य का रसिक हो, वह सच्चा निर्ग्रन्थ नहीं है। भाव निर्ग्रन्थ ही वास्तव में मोक्ष का मार्ग है, केवल व्यवहार - चारित्र मोक्षमार्ग नहीं है। पञ्च महाव्रत और अट्ठाईस मूलगुण और नग्नपना वह केवल व्यवहार क्रियाकाण्ड है, मोक्षमार्ग है ही नहीं । आहा... हा...! वे वहाँ ठहराते हैं, गजब किया है ! लोग ऐसे झेलनेवाले, दिगम्बर जैन धर्म, सनातन सत्य प्रवाह आता है, उसमें ऐसे निषेध करनेवाले कोई निकले... ऐसा सनातन वीतरागमार्ग सन्तों ने सरल कर दिया है, स्पष्ट कर दिया है। भगवान तेरी चीज तो पुण्य-पाप के विकल्प से रहित है न! तेरा निर्ग्रन्थस्वरूप है ! उसके अनुभव के बिना तुझे स्थिरता कहाँ से होगी और स्थिरता के बिना चारित्र नहीं होता । बाहर का लाख क्रियाकाण्ड कर, बाहर पञ्च महाव्रत पाल (परन्तु ) मुनि है ही नहीं। समझ में आया? रत्नत्रय, अन्तरङ्ग स्वानुभवरमणरूप निश्चयचारित्र है, यही
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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