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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - २ ) मुमुक्षु कारण- कार्य की मीमांसा.... उत्तर - यही कार्य-कारण की मीमांसा है। समझ में आया ? - ३६१ इसलिए यहाँ कहते हैं, कोई किसी को कौन मारे ? कौन जिलाये ? कौन दे ? किसे दे? किसे ले ? ऐसे समस्त भ्रम अज्ञानी को होते हैं कि इसने यह दिया और इसने यह लिया ऐसा ज्ञानी को नहीं होता; इसलिए सहजरूप से धर्मी को उस प्रकार का पर का कारण बनाकर विषमताभाव उत्पन्न नहीं होता ( था), वह नहीं होता । रविवार है, रविवार है, इसलिए वकील फुरसत में होते हैं। यहाँ तो कहते हैं, आत्मा ऐसे समभाव के धारक ज्ञानी गृहस्थ, सामायिक शिक्षाव्रत और मुनि, सामायिक चारित्र के पालक हैं । गृहस्थाश्रम में भी अपने सम्यग्दर्शन और ज्ञान का भान है; इस कारण उसे पर के प्रति विषमता मिट गयी है अथवा अपने ज्ञान में रागादि कोई कमजोरी से होते हैं, उसे अपने स्वभाव में खतौनी नहीं करता है। समझ में आया? यह दृष्टान्त दिया है, देखो ! , समयसार कलश में कहा है : अन्तिम दृष्टान्त ' इति वस्तु स्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः 'बन्ध अधिकार' का १७६ वाँ कलश है । 'बन्ध अधिकार' का १७६ वाँ संलग्न... संलग्न... १७६ (श्लोक) । ' रागादीन्नात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः सम्यग्ज्ञानी अपने ज्ञाता-दृष्टा के स्वभाव को जानता हुआ, ज्ञानी इस तरह सर्व वस्तुओं के स्वभाव को.... समस्त वस्तुओं के स्वभाव को और अपने आप को ठीक-ठीक जानता है। सभी चैतन्य परमात्मस्वरूप ज्ञाता हैं - ऐसा जानता है। राग-द्वेष की विषमता हो तो उसे व्यवहार से वैसा जानता है । द्रव्यरूप से जगत् के परमाणु आदि सामान्यरूप से उन्हें जानता है, व्यवहाररूप से उनकी पर्याय उनका कार्य है; इस तरह उस पर्याय को कार्यरूप से व्यवहारनयरूप से जानता है। समझ में आया? उसकी पर्याय – कार्य व्यवहारनय से जानता है - ऐसा कहा । वहाँ वह पर्याय का व्यवहार है; निश्चय उसका द्रव्य है। समझ में आया ? परमाणु अनन्त हैं, उनका सामान्यपना, ध्रुवपना वह उनका द्रव्य है, निश्चय है । उसकी पर्याय वह प्रति समय (होती है), वह उसका व्यवहार । यह व्यवहार.... निश्चय
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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