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________________ ३५२ गाथा-९९ द्रव्य, गुण में तो भव नहीं था परन्तु ऐसी पर्याय प्रगट हुई तो अब पर्याय में भी भव नहीं है। आहा...हा...! इसलिए फुडु शब्द प्रयोग किया है न! प्रगट हो गयी सामायिक दशा (उसे) भव नहीं, भव नहीं। आहा...हा...! (लोगों को) ऐसा लगता है, भगवान जाने भगवान ने कितने भव देखे होंगे? अब सुन न! तू तुझे देखता है तदनुसार भगवान देखते हैं। तू देख कि मैं अरागी हूँ, मुझे संसार नहीं है तो भगवान ऐसा देखेंगे और ऐसी दशा है। ज्ञानमय भगवान आत्मा, आनन्दमय आत्मा स्वभाव का अभेदवाला स्वभाव। स्वभाववान स्वभाव से अभेद है। भव के भाव से अभेद नहीं है। समझ में आया? देखो यह सामायिक और सामायिक कैसी? किसे होती है? और कैसे होती है ? पहले (यह) तीन बोल कहे थे, भाई! शुरुआत में पहले तीन (बोल) कहे थे। कैसी होती है? किसे होती है? कैसे होती है ? समझ में आया? पहले आया था या नहीं? और यह तीन क्या? आहा...हा...! भाई ! कैसी होती है ? ऐसी समता होती है, सामायिक होती है। किसे होती है ? ज्ञानमय देखे उसे होती है। समझ में आया? कैसे होती है ? स्वभाव का आश्रय करे, उसे होती है। आहा...हा...! दूसरे सब आत्माओं को.... जब स्वयं भी अपने आत्मा को ज्ञानमय से जहाँ देखता है, जानता है, उस स्थिति में स्वयं ने जहाँ राग और भेद को गौण कर दिया है तो उस प्रकार समस्त आत्मा अपने स्वभाविक दृष्टि से देखने पर उनका भी भेद और राग गौण करके उन्हें ज्ञानमय देखे, बस! समभाव (हो गया); किसी पर विषमपना करना नहीं रहता। यह परमात्मा है, इसलिए वन्दनीय है, ऐसा राग भी नहीं रहता – ऐसा कहते हैं और यह जैनदर्शन का विरोधी है, इसलिए द्वेष (होता है), यह वस्तु में है नहीं - ऐसा कहते हैं। आहा...हा...! समझ में आया? श्री योगीन्दुदेव अमृताशीति में कहते हैं – हे मित्र! सच्चे साम्यभाव की गुफा के बीच में बैठकर.... भाषा देखो! अपने समयसार की जयसेनाचार्यदेव की ४९ गाथा की टीका में आता है न? अनुभूति की गुफा में बैठ। ४९ वीं गाथा में है। जयसेनाचार्यदेव की टीका में है। अनुभूति की गुफा... समझ में आया? सचैवोपादेय आत्मा इति मत्वा
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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