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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ३५१ अनन्त की सत्ता, वह अनन्त की पृथक्प रहकर, सिद्ध भी पृथक् सत्ता रहकर सिद्ध होते हैं। सिद्ध में होकर एक सत्ता दूसरे में मिल (नहीं जाती)। ज्योत में ज्योत मिल जाती है - ऐसा कितने ही कहते हैं। वहाँ फिर मिल गये। क्या धूल मिले? सुन न ! मुमुक्षु - अलग चौका। उत्तर - अलग चौका(क्या)? सबका त्रिकाल भिन्न है। त्रिकाल सत्ता का अस्तित्व भिन्न है तो जहाँ मोक्ष हुआ, वहाँ सत्ता का अभाव हुआ या मोक्ष हुआ वहाँ विकार का अभाव हुआ? विकार का अभाव हुआ तो स्व सत्ता की विकास शक्ति पूर्ण प्रगट हुई, (उस) सहित सत्ता रही है। समझ में आया? यह वस्तु ऐसी है। अन्यमति सब गप्प मारते हैं कि यह सब एक है (ऐसा नहीं)। दूसरे जैन में भी ऐसा कहते हैं। एक था वह भाई ! नहीं? मणियार था न भाई ! अपने अन्धा... (संवत्) १९९५ में व्याख्यान सुनने आता था। तब अपने यह समयसार चलता था (तब उसने कहा) हाँ महाराज! सत्य है, हाँ! ज्योत में ज्योत मिलायी, फिर सिद्ध हो और फिर ज्योत में ज्योत मिल जाती है। अरे... ! ऐसा नहीं है। ऐसे कहाँ गप्प मारे? 'एक में अनेक और अनेक में एक' आता है न स्तति में? वह तो जहाँ एक भगवान विराजते हैं, वहाँ क्षेत्र में अनन्त है, अनन्त विराजते हैं, वहाँ एक है; प्रत्येक की सत्ता भिन्न है। अस्तित्व हो वह कोई तत्त्व खो बैठे? उसका अस्तित्व गुण ही ऐसा है कि जिस अस्तित्व गुण के कारण प्रत्येक तत्त्व अनादि-अनन्त सत्ता को धार रखा है। यह तो अस्तित्वगुण का गुण है। छह गुण का सामान्यगुण का पहला गुण है अस्तित्व। अस्तित्व कहो या सत् कहो। समझ में आया? यहाँ आचार्य भगवान कहते हैं कि भाई! आहा...हा... ! ऐसा भाव जहाँ तुझे जम गया कि भगवान तो अकेला ज्ञान, चैतन्य सूर्य है, बस! वह क्या करे? वह राग को करे? वह पर का करे? वह राग और पर को पर्याय से भेद को जाने। पर्यायनय से जानने का (करे) । निश्चयनय से वह अभेदज्ञानमय सब आत्मा हैं। वे सब ज्ञानमय आत्मा भी राग को नहीं करते और कर्म के वश हुई दशा उनके ज्ञानमय में नहीं है। समझ में आया? आहा...हा... ! ऐसा जिसे अन्तर में ज्ञान की वास्तविकरूप से समता प्रगट हुई है, उसे सामायिक, भगवान परमात्मा जिनवर एम भणेइ। तीन लोक के नाथ परमेश्वर जिनदेव इसे सामायिक कहते हैं । आहा...हा...! उसे अब भव नहीं। समझ में आया? वस्तु में -
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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