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________________ गाथा - ९९ 'भूदत्थमस्सिदो खलु चारित्रवंत हवदि जीवो' (कहा है)। पद्मनन्दि आचार्य में यह है। इसी की इसी गाथा को यहाँ 'सम्मादिट्ठी हवदि जीवो' कहा है। पद्मनन्दि आचार्य ऐसा (आता है कि 'भूदत्थमस्सिदो खलु' यति चारित्रभाव होता है - ऐसा लिखा है। वहाँ ऐसा है, शब्द यह लिया है। पद्मनन्दि आचार्य... मूल तो समयसार में सब बीज हैं। शास्त्र, आचार्य दूसरे सब मानों पूरे उसमें बीज भरे हैं। थोड़ा तो, बहुत हुआ है अब । ३४२ 'भूदत्थं' वहाँ यह कहा था, यह गाथा एक बार कहीं से निकाली थी, वहाँ यति शब्द रखा है। भूतार्थ के आश्रय से यति इतना प्रगट होता है - ऐसा वहाँ कहा है। इसमें भूतार्थ के आश्रय से सम्यग्दृष्टिपना प्रगट होता है (ऐसा कहा ) परन्तु उसका अर्थ यह है कि जो वस्तु ज्ञानमय अर्थात् ज्ञानमय अर्थात् वीतरागतामय अर्थात् निर्विकल्पस्वभाव समरूपी एक स्वरूप है, उसका आश्रय करने से सम्यग्दर्शन होता है, सम्यग्ज्ञान होता है, सम्यक् चारित्र होता है, शुक्लध्यान होता है, केवलज्ञान होता है; इस प्रकार सभी जीव को देखने से कहीं राग-द्वेष करना नहीं रहता है । जो अनन्त आत्माओं की आठ कर्मों के वश विषमता, विविधता, अनेकता, जो ज्ञात होती है, वह कहीं उनका मूल स्वरूप नहीं है। समझ में आया ? सभी ज्ञानमय प्रभु हैं न ! आहा....हा... ! उसे फिर यह ठीक और अठीक करने की वृत्ति ही नहीं रही। समझ में आया? व्यवहार और पर्यायदृष्टि से देखने की आँख बन्द करके वस्तु के स्थायी असली स्वभाव को देखने की दृष्टि से देखे तो स्वयं को भी ज्ञानमय देखे और दूसरे सबको भी समभाव से भरपूर भगवान ही देखे । इसलिए कहीं विषमता करने का (नहीं रहा) क्योंकि उसके ज्ञानमय में विषमता नहीं, इसलिए इसे विषमता करने का कारण नहीं रहता है । समझ में आया? अद्भुत भाई ! सामायिक की व्याख्या ! योगीन्दुदेव यह सामायिक की व्याख्या करते हैं । आहा... हा... ! फिर आधार देते हैं, 'जिणवर एम भणेइ' हाँ ! ' जिणवर एम भणेइ।' स्वयं समभाव से कर्ता होकर हो सकता है। (मैं) ज्ञानमय हूँ। (ऐसे ही) सभी भगवान ज्ञानमय है, ऐसा निश्चयदृष्टि से कर्ता आत्मा होकर स्वयं के ज्ञानमय आत्मा के समभाव को प्रगट करे - ऐसे दूसरे सभी आत्माएँ ज्ञानमय है; इसलिए विषमता के प्रकार दिखने पर भी अभिन्नरूप से सब भगवान
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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