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________________ ३१८ गाथा-९६ - ऐसा जब भिन्नपना जाना और एकत्वपना रखे तो उसने जाना क्या? समझ में आया? इसलिए कहते हैं कि परवस्तु को, राग-द्वेष को छोड़ता है। अज्ञानी अनादि से कर्मचेतना में ही लीन है, उसे आत्मा के स्वभाव का भान नहीं है। मैं तो परमवीतरागी ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य का धारक कर्म-कलंकरहित परमात्मा हूँ। ऐसा उसने ज्ञान शास्त्र पढ़ा परन्तु किया नहीं, जब ऐसा परमात्मा, ऐसा सम्यग्दर्शन होने पर उसे विकार की एकत्वता टूट जाती है अर्थात् विकार का परभाव का त्याग हो जाता है, उसे त्याग हो गया होगा। दृष्टि में से त्याग हो गया। फिर स्वरूप की जितनी स्थिरता करता जाये, उतनी अस्थिरता मिटती जाती है। ऐसा न हो तो उसने शास्त्र-वास्त्र कुछ नहीं जाना और उसका सार है, वह नहीं समझा। (श्रोता - प्रमाण वचन गुरुदेव!) मानो साक्षात् भगवान ही आँगन में पधारे... सम्यक्त्वी धर्मात्मा को रत्नत्रय के साधक सन्त-मुनिवरों के प्रति ऐसा भक्तिभाव होता है कि उन्हें देखते ही उनके रोम-रोम से भक्ति उछलने लगती है... अहो! इन मोक्ष के साक्षात् साधक सन्त-भगवान के लिए मैं क्या-क्या करूँ!! किस प्रकार उनकी सेवा करूँ!! किस प्रकार उन्हें अर्पण हो जाऊँ!! - इस प्रकार धर्मी का हृदय भक्ति से उछल पड़ता है। जब ऐसे साधक मुनि अपने आँगन में आहार के लिए पधारें तथा आहारदान का प्रसङ्ग उपस्थित हो, वहाँ तो मानों साक्षात् भगवान ही आँगन में पधारे... साक्षात् मोक्षमार्ग ही आँगन में आ गया! इस प्रकार अपार भक्ति से मुनि को आहारदान देते हैं, किन्तु उस समय भी आहार लेनेवाले साधक मुनि की तथा आहार देनेवाले सम्यक्त्वी धर्मात्मा की अन्तर में दृष्टि (श्रद्धा) कैसी होती है, उसका यह वर्णन है। उस समय उन दोनों के अन्तर में देने या लेनेवाला नहीं है तथा यह निर्दोष आहार देने या लेने का जो शुभराग है, उसका भी दाता या पात्र (लेनेवाला) हमारा ज्ञायक आत्मा नहीं है, हमारा ज्ञायक आत्मा तो समयग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मल भावों का ही देनेवाला है, उसी के हम पात्र हैं। (- आत्मप्रसिद्धि, पृष्ठ ५४४)
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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