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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) आया? बाह्य पदार्थ और बाह्य फल, वह जिसकी बुद्धि में अधिक दिखता है, अधिक दिखता है तो उसे फल की प्रीति आयी तो बन्धन के कारण को भी अपने आत्मा के स्वभाव से अधिक माना और बन्ध के कारण शुभभाव को भी अपने स्वभाव से भी अधिक माना। आत्मा को हीन माना। समझ में आया कुछ? क्या कहा? भगवान आत्मा शुद्ध आनन्दस्वरूप है, ऐसी जिसे रुचि नहीं है, उसे इन्द्रिय के फल विषय में रुचि है, प्रेम है, तो उसका बन्ध पड़ा, पुण्यबन्ध पड़ा, उसका भी प्रेम है और उसका कारण, शुभभाव में भी प्रेम है और आत्मा के प्रति उसे अप्रेम है। जिसे आत्मा के प्रति प्रेम है, उसे इन्द्रिय विषय के प्रति हेयबुद्धि है। तो उसके बन्ध में भी हेयबुद्धि है और बन्ध के कारण में भी हेयबुद्धि है। समझ में आया? (ज्ञानी) मात्र शुद्धोपयोग की भावना करता है, जिससे तिर्यञ्च में भी अतीन्द्रियसुख होता है। देखो, क्या कहते हैं ! अरे...! पशु में भी आत्मश्रद्धा, आत्मज्ञान और शुद्धोपयोग होता है तो उसे भी आनन्द आता है। पशु को खाने के लिये एक टुकड़ा नहीं मिले, अनाज का कण नहीं मिले... समझ में आया? और चार-चार पहर रात्रि में आहार का त्याग । रात्रि में कोई पानी नहीं मिलता। चिड़िया का छोटा बच्चा हो, सुबह से शाम तक पानी की बूंद नहीं, अनाज का कण नहीं और स्थान परिवर्तन नहीं (ऐसे) तीन (नहीं)। स्थान भी वही, वहाँ आसन लगा दिया, चकला कहते हैं न? चकला... चिड़िया है, मोर है, पक्षी है। देखो, एक स्थान में बारह घण्टे-तेरह घण्टे (रहते हैं)। रात बड़ी हो तो चौदह-चौदह घण्टे (रहते हैं)। आहार की कण नहीं, पानी की बूंद नहीं, समझ में आया? परन्तु कहते हैं कि उस स्थान में भी, यदि आत्मा शुद्ध चिदानन्द की रुचि और अनुभव है तो उसे शुद्धोपयोग का आनन्द है। आहा...हा...! समझ में आया? ऐसी स्थिति में भी... आहा...हा...! पशु है न? मेंढ़क होता है, वह भी सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। आत्मा है या नहीं? भगवान के समवसरण में पशु आदि सब जाते हैं, छोटा मेंढ़क भी जाता है, बड़ेबड़े मगरमच्छ भी जाते हैं और बड़े-बड़े सिंह-बाघ, नाग भी जाते हैं। बड़ा जहरीला नाग हो, वह रात में तो भोजन के लिए घूमता है परन्तु यह नहीं फिरता, फिर रात्रि भोजन नहीं
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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