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________________ ३० गाथा-७२ साधन जैसे सिंह, बाघ, हथियार, रोग आवे और आकुलता होती है; उसी प्रकार आकुलता तृष्णारूपी रोग के बढ़ने में होती है। तृष्णारूपी रोग बड़ा उसमें आकुलता बढ़ती है, वह आकुलता बड़ी। समझ में आया? इस जीव ने बार-बार देवगति तथा मनुष्यगति में पाँच इन्द्रियों के विषयभोग भोगे हैं... अनन्त बार स्वर्ग के भोग भोगे, नरक का दुःख सहन किया, मनुष्य के राजपाठ में भी अनन्त बार जन्मा और भोग, भोगे (परन्तु) तृप्ति नहीं हुई। तृष्णा की दाह शमन न हो सकी। क्योंकि आत्मा के आनन्द की रुचि के बिना वह तृष्णा की दाह शमन नहीं होती। ज्ञानीजन विषय सुख को हेय समझते हैं।... धर्मी जीव पाँच इन्द्रिय के विषय सुख को हेय - ज्ञेयरूप हेय समझते हैं, छोड़नेयोग्य समझते हैं। और विषयसुख के कारणरूप पुण्यकर्म को हेय जानते हैं। ऐसा कहना है न वापस ! समझ में आया? उस विषयसुख को धर्मी जीव हेय जानते हैं, तब विषयसुख के कारणभूत ऐसे पुण्यकर्म को हेय जानते हैं। इसीलिए पुण्यबन्ध के कारणरूप शुभोपयोग को भी हेय समझते हैं। तीन बोल लिये हैं। धर्मी उसे कहते हैं कि पाँच इन्द्रिय के विषयसुख को छोड़ने योग्य जाने। पाँच इन्द्रिय के विषयों को हेय जानें तो उनके कारणरूप बन्ध को भी हेय जानें; बन्ध को हेय जानें, समझ में आया? तो पुण्यबन्ध का कारण ऐसे शुभोपयोग को भी हेय जानें। तीनों ही हेय हो गये। जिसे विषयतृष्णा इन्द्रियसुख में प्रीति है, उसे पाप में प्रीति है, उसके फल में प्रीति है, तो उसकी प्रीति कर्मबन्धन में है और जिसे इन्द्रिय-विषयसुख का प्रेम है, उसका बन्ध पुण्य हो तो भी ठीक मानता है और पुण्यभाव को भी ठीक मानता है। इन्द्रिय विषयसुख को हेय मानता है, उसे पुण्यबन्ध भी हेय है और उसका कारण शुभभाव भी हेय है। क्या कहा? छह बोल हुए। इन्द्रियविषय को सुखरूप मानता है, उसे इन्द्रियविषय के कारण जो बन्ध है, उसे सुखरूप मानता है, उसके कारणरूप भाव को भी सुखरूप मानता है। इन्द्रियविषय को सुखरूप नहीं मानता, हेय मानता है तो इन्द्रियविषय सुख का कारण जो बन्ध, उसे भी हेय मानता है और बन्ध के कारणरूप शुभभाव को भी हेय मानता है। आहा...हा...! समझ में
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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