SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) २८५ कहो या गुणस्थान (कहो) । इसके अतिरिक्त किसी राग, पुण्य और निमित्त के आश्रय से गुणस्थान की धारा बढ़ती नहीं है । आहा...हा...! कहो, इसमें समझ में आया? मुमुक्षु को एक आत्मध्यान का ही अभ्यास करना चाहिए। फिर निर्विकल्प की थोड़ी बात की है। निश्चयनय त्रिकाल शुद्ध आत्मा का दर्शन कराता है। निश्चयनय तो आत्मा त्रिकाल शुद्ध है - ऐसा दर्शन कराता है। व्यवहारनय तो भेद और राग का दर्शन कराता है। आहा...हा...! अभी डाला है इन्होंने, भाई ! सातवीं गाथा आती है न। ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं। ण वि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो॥७॥ भगवान कुन्दकुन्दाचार्य ऐसा कहते हैं न? दो मत में से अभी व्यवहार का उपदेश देना, यह सच्चा मत है। यह भगवान ने कहा है और यह निषेध है, भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने अर्थ किया यह अभी सच्चा नहीं ( – ऐसा मानते हैं)। अरे ! भगवान ! परन्तु यह क्या हुआ? समझ में आया कुछ ? 'ण वि होदि अप्पमत्तो' जहाँ छठवें में पुण्य-पाप के विकल्प का भेद निकाल दिया, असद्भूत व्यवहार के उपचार और अनुपचार के भेद निकाल दिए और पर का ज्ञान उपचार है, उसे निकाल दिया। सातवीं (गाथा में) गुणगुणी का भेद है, वह निकाल दिया अर्थात् सद्भूत अनुपचार निकाल दिया। अकेला ज्ञायकभाव है, उसमें यह भेद नहीं है। भेद डालना, यह विकल्प का कारण, यह बन्ध का कारण है; इसलिए यह मोक्षमार्ग नहीं है - ऐसा वहाँ सिद्ध करना है। अकेला भगवान ज्ञायक... ज्ञायक... ज्ञायक... ज्ञायक... ज्ञायक - ऐसा विकल्प नहीं, हाँ! यह तो समझाने में क्या आये? अकेला चैतन्य, भेद जो पुण्य-पाप के अचेतन, विकल्प, जड़ अर्थात् चैतन्य के नूररहित, उनसे भिन्न पड़ा हुआ चैतन्य, अकेला ज्ञान का परिणमन, ज्ञायकभाव से करे और उस परिणमन में ज्ञायकभाव शुद्ध जो दृष्टि में आवे, उसे धर्मदृष्टि कहते हैं। आहा...हा...! अब इस दृष्टि के बिना व्यवहार अभी कहो, पंचम काल में निश्चय मोक्षमार्ग नहीं है ( – ऐसा कहते हैं)। भगवान तूने गजब किया है, आहा...हा...! परन्तु निश्चय के बिना व्यवहार होता ही नहीं, स्व आश्रय से निश्चय प्रगट हुआ, तब पराश्रित
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy