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________________ गाथा - ९३ से लाभ होगा, ऐसा ही इसने अन्तर्मुख भगवान आत्मा को दृष्टि में से ओझल कर दिया है । है ? आहा... हा...! २८४ भगवान पूर्णानन्दस्वरूप आत्मा, जिसका सर्वज्ञ भी पूरा कथन कहने पर वाणी में न आवे - ऐसा आत्मा है । ' जो पद झलके श्री जिनवर के ज्ञान में, कह न सके पर वह भी श्री भगवान जब ।' 'जो पद झलके श्री जिनवर के ज्ञान में, कह न सके पर वह भी श्री भगवान जब ।' गोम्मटसार में आता है कि भगवान ने जाना, वे अनन्तवाँ भाग कह सके। आहा... हा.... ! ' उस स्वरूप को अन्य वाणी तो क्या कहे ?' केवली परमात्मा पूर्णानन्द का नाथ जहाँ पूर्ण मुक्ति हो गयी, भाव मुक्ति (हो गयी), भले चार (अघातिकर्म) बाकी रह गये, उसका कुछ नहीं । भाव मुक्ति हो गयी। वे भी भगवान आत्मा की जा -भात की बात पूरी नहीं कह सकते तो 'उस स्वरूप को अन्य वाणी तो क्या कहे ? अनुभव गोचर मात्र रहा वह ज्ञान जब, अपूर्व अवसर ऐसा किसदिन आएगा ?' श्रीमद् राजचन्द्र तीस वर्ष में भावना करते हैं । आत्मदृष्टि होने के बाद की बात है, हाँ ! ओ...हो... ! ऐसा भगवान आत्मा कहाँ पुण्य और पाप के विकल्प के आस्रव से जीवतत्त्व भिन्न, अरे... ! उसका भान हुआ, कहते हैं कि यह बातें अनुभवगम्य हो गयीं, अनुभवगम्य ! गुड़, गूंगा गुड़ कैसा ? ऐसा भगवान आत्मा, उसका अनुभव हुआ, उसका ध्यान (हुआ) वह एक ही मोक्ष का मार्ग है । आत्मध्यानी ही गुणस्थानों की श्रेणी चढ़ सकता है । देखो, क्या कहते हैं ? चौथे गुणस्थान में, पाँचवें में, सातवें में, और फिर छठवें में आता है, यह गुणश्रेणी की श्रेणी आत्मध्यानी कर सकता है। राग के विकल्प में अटका हुआ गुणस्थान की श्रेणी बढ़ा नहीं सकता। समझ में आया ? भगवान आत्मा पूर्णानन्द शान्तस्वरूप महापिण्ड चैतन्य, चैतन्य पिण्ड, चैतन्यदल, चैतन्य नूर, चैतन्य पूर - ऐसा पूर्णानन्द प्रभु, कहते हैं, उसकी दृष्टि, उसका ध्यान - - एकाग्रता द्वारा गुणस्थान की श्रेणी बढ़ती है। राग के अवलम्बन से, पुण्य से अवलम्बन से कहीं गुणश्रेणी की धारा बढ़ती नहीं है। चैतन्य के एकाग्रता की धारा से स्थान धारा बढ़ती है । आहा... हा... ! समझ में आया ? वस्तु पूर्णानन्दस्वरूप – ऐसा आत्मा उसमें आरूढ़ होने से गुणधारा, गुणश्रेणी, गुणस्थान बढ़ते हैं। गुणधारा, गुणश्रेणी
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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