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________________ २८ गाथा - ७२ -- पुण्य के फल से प्राप्त विषयभोगों के भीतर फँस जाने से विषयी मनुष्य, नरकादि निगोद में चला जाता है। लो, यह पुण्य का फल ! परमात्मप्रकाश में कहा है - पुण्य से वैभव, वैभव से अभिमान, अभिमान से नरक... समझे ! योगीन्द्रदेव आचार्य ने कहा है कि पुण्य से वैभव ( मिलता है)। यह पुण्य बाँधे तो उससे वैभव-धूल मिलती है; यह धूल... धूल... ! पैसा और प्रतिष्ठा, मकान और गहने और ठाठ-बाट, हाथी, बैल और घोड़ा... मोटर तो फिर अब हो गयी है । है ? हाथी, घोड़ा, बैल... ओ...हो... ! पुण्य के फल में यह मिलते हैं, फिर अभिमान ( करता है कि ) मेरे है, तुम्हारे नहीं। धूल की चीज मेरे है, तुम्हारे नहीं। अभिमान से नरक मिलता है। जाओ, नीचे उतरो । समझ में आया ? देव गति में भवनवासी व्यन्तर, ज्योतिषी और दूसरे स्वर्ग तक के देव मरकर एकेन्द्रिय, पृथ्वी, जल, वनस्पतिकाय में जन्म ले लेते हैं। देखो ! आहा...हा... ! पुण्य के फल में इन्द्र का, देव का पद मिले और देव मरकर एकेन्द्रिय में जाये । तृष्णा में पुण्य की इच्छा है, पुण्य का फल भोगने की भावना है - ऐसा मिथ्यादृष्टि ऐसा कहते हैं । वह भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष या अमुक वैमानिकदेव ... । समझ में आया ? एकेन्द्रिय पृथ्वी, जल और वनस्पति में उत्पन्न होता है। दो-दो सागर की स्थिति हों, असंख्य अरब वर्ष की स्थिति छोड़कर पृथ्वी में जाता है। पुण्य की अभिलाषा और उसके फल की अभिलाषा में मिथ्यादृष्टि मरकर एकेन्द्रिय में जाता है। दूसरे देवलोक का देव, इन्द्र नहीं । समझ में आया ? पानी में जाता है, वनस्पति उत्पन्न होता है । बारहवें स्वर्ग तक के देव पञ्चेन्द्रिय पशु तक में जन्म ले सकते हैं। पुण्य के फल की इच्छा और इन्द्रियसुख की इच्छावाला मिथ्यादृष्टि भले ही पुण्य के फल में बारहवें स्वर्ग में चला जाये, वहाँ भी इन्द्रिय के विषय में लोलुपता है । आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द की दृष्टि नहीं है तो वह भी मरकर पशु में जाता है। बारहवें स्वर्ग का देव पशु में उत्पन्न होता है। समझ में आया ? बारहवें अर्थात् वह आठवाँ देवलोक जो श्वेताम्बर का ( कहना) है, वह यहाँ बारहवाँ कहलाता है। समझ में आया ? नौवें ग्रैवेयक तक के देव मनुष्यरूप से जन्मते हैं । वे देव मनुष्य में आते हैं, कहते हैं ।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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