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________________ गाथा-७२ कि ऐसा समझ। समझ में लेता है कि पुण्य और पाप दोनों बन्ध के कारण हैं, मेरा आत्मास्वभाव ही शुद्ध आनन्द का कारण, मुक्ति का कारण है। फिर छोड़ दे... शुभाशुभभाव छोड़ और शुद्धभाव में आ जा। भगवान आत्मा पूर्ण शुद्ध आत्मा से तो भरपूर है, उसमें आ जा; शुभभाव को छोड दे। 'परिच्चयहि' कहा न? 'ते वि हवंति ह णाणि' उसे ज्ञानी कहा जाता है। कहो, दृष्टि में दोनों को छोड़े तो ज्ञानी कहलाता है। पुण्य ठीक है और पाप अठीक है – ऐसा जब तक मानता है, वहाँ तक वह मिथ्यादृष्टि है। समझ में आया? अद्भुत बात, पुण्य बात बहुत कड़क। एक तो पैसा और प्रतिष्ठा और शरीर ठीक (होवे तो) ऐसा मीठा लगता है...! ज़हर मीठा लगता है। स्त्री, पुत्र और पैसा, परिवार... ओ...हो...! महल-मकान, मकान। दुनिया में ठाठ तो पुण्य का है न? दुनिया में ठाठ तो पुण्य का ही होता है न? धूल में दुनिया में... धर्मी का ठाठ तो अन्दर आत्मा की श्रद्धा -ज्ञान और चारित्र करना, वह धर्मी का ठाठ है। आहा...हा... ! समझ में आया? सर्वज्ञ परमेश्वर त्रिलोकनाथ तीर्थङ्करदेव ऐसा फरमाते हैं कि भगवान ! तेरी चीज में तो आनन्द और शुद्धता पड़ी है न! उसकी श्रद्धा-ज्ञान और चारित्र – रमणता करना, वही तेरा ठाठ है. सब तो ठाठडी है। ठाठ की हो गयी ठाठडी। समझ में आया। ठाठडी मस्तिष्क में आयी तो 'गुणवन्त' याद आया। कहो, समझ में आया इसमें? कहते हैं कि शुभ-अशुभभाव का त्याग... आहा...हा...! शरीर तो जड़, कर्म जड़, वह तो ज्ञेय है – ज्ञान का विषय है। पुण्य-पाप के भाव वे भी वास्तव में अपनी चैतन्यजाति से भिन्न अचेतन है। पुण्य-पाप के भाव में चैतन्य के तेज-नूर का उनमें अभाव है। समझ में आया? भगवान परमेश्वर-तीर्थङ्कर फरमाते हैं, अरे... ! धर्मी! यदि तुझे आत्मा का स्वभाव प्रीति और रुचिकर हुआ है तो पुण्य-पाप को दृष्टि में से छोड़ दे। पुण्य हितकर है और पाप अहितकर है – ऐसा छोड़ दे। आहा...हा...! समझ में आया? पुण्य और पाप कर्म दोनों ही बन्धन हैं, पुण्य को सोने की तथा पाप को लोहे की बेड़ी कह सकते हैं। दोनों ही कर्म संसारवास में रोकनेवाले हैं। समझ में आया? जब दोनों बेड़ियों का विघटन होता है...'तोड़ना होता है' - ऐसा चाहिए। तब ही यह जीव स्वाधीन मोक्षसुख को पाता है। पुण्य और पाप का दोनों का विघटन
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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