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________________ २५२ गाथा-९१ भाई! तुझसे ना नहीं हो सकती। जब तू राग में एकत्व था, और राग से पृथक् हुआ... एकत्व-विभक्त, पण्डितजी ! आया न? पण्डितजी ने परसों कहा था न?'तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण' यह (समयसार की) पाँचवीं गाथा में कहा। तं एयत्तविहत्तं' वह कभी सुना नहीं। पर से पृथक्, भगवान राग से पृथक् हुआ और स्वभाव से एकत्व हुआ तो राग से पृथक् हुआ उसमें कोई स्थिरता होगी या नहीं? समझ में आया? न्याय से, वस्तु से, स्थिति से समझना पड़ता है न! ऐसा का ऐसा अर्थ करे (चले नहीं)। यह तो वीतरागमार्ग है। समझ में आया? भगवान आत्मा अपना शुद्धस्वरूप जब दृष्टि में नहीं था और राग व पुण्य व विकल्प दृष्टि में था, तब तो उसकी श्रद्धा भी मिथ्या थी, क्योंकि राग को ही, अंश को ही आत्मा मानता था। अथवा राग के पीछे वर्तमान क्षयोपशमज्ञान, दर्शन, वीर्य का अंश है, उस विकार, अंश को आत्मा मानता था। अंश को आत्मा मानता था या राग को आत्मा मानता था परन्तु त्रिकाल ज्ञायकभाव को आत्मा नहीं मानता था। भाई ! त्रिकाल ज्ञायकभाव अनन्त गुण से भरपूर है, उसकी जहाँ अन्तर्दृष्टि हुई तो अंश को मानता था, तब तो रागादि का लक्ष्य होता था। जहाँ अंशी की दृष्टि हुई तो उसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्आनन्द का अंश और स्वरूपाचरण का - स्थिरता का अंश साथ में होता है. होता और होता ही है। तेरी लाख चर्चा करना ! समझ में आया? क्या करे? उनको बेचारों को हल्का रखना पड़ा है, हाँ! 'गाँधी' को मैंने कहा खोज करता हूँ, शास्त्र का आधार (देखता हूँ)। जिसमें दोनों को आपत्ति न आवे। शास्त्र आधार मिलता नहीं, परन्तु भगवान सुन तो सही, न्याय से सुन, प्रभु का न्यायमार्ग है। ___ यहाँ कहते हैं, देखो! चौथे गुणस्थान से आत्मा की स्थिरता शुरु होती है, फिर स्थिरता न हो सके तो राग से पृथक् हुआ किस प्रकार? सात तत्त्व में आस्रवतत्त्व और अजीव, दोनों से भिन्न होकर ज्ञायकतत्त्व की प्रतीति की तो प्रतीति हुई कहाँ से? तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं - इसमें आस्रवतत्त्व आया, पुण्य-पाप (इसमें आ गये), अजीवतत्त्व आया तो उनकी श्रद्धा कब होती है? इस आत्मा में वह आस्रव और अजीव नहीं है - ऐसी प्रतीति करने से स्वरूप की स्थिरता हुई। ज्ञायक की श्रद्धा होने से संवर, निर्जरा की पर्याय
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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