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________________ गाथा - ९१ उसके गुण, सत् के गुण शाश्वत् हैं । जैसे, सत् शाश्वत् है, इसी प्रकार गुण भी शाश्वत् है । उसकी प्रत्येक अवस्था में गुण नहीं रहे तो कहाँ जाएँ ? चिमनभाई ! आहा... हा...! २४६ यहाँ तो पहले प्रश्न दिमाग में उठा था । अजर, अमर गुणों का निधान... ऐसा आया था न? मैंने कहा, यह एक बात ठीक है । है तो आत्मा, संस्कृतवाले को पूछना चाहिए न ? पण्डित को पूछा। समझ में आया ? यह भगवान आत्मा तो अजर-अमर है तो इसके गुण भी अजर-अमर हैं और गुण अजर-अमर है तो आत्मा भी अजर-अमर है । आहा...हा...! बात यह है कि इसने विश्वास की धार चढ़ाई नहीं है । 'सराणे' समझते हो? यह छुरी साफ नहीं करते ? धार लगाते हैं । इसी प्रकार भगवान आत्मा स्वयं की श्रद्धा के भरोसे की धार में चढ़ाया नहीं । आत्मा को भरोसे की धार में चढ़ावे तो एक सैकण्ड के असंख्य भाग में जितने सामान्य, विशेष गुण का पिण्ड है, उतने समस्त गुणों का एक अंश परिणमन व्यक्त प्रगट हो जाता है । आहा... हा... ! कहो, समझ में आया कुछ ? कर्मों से और शरीर से भिन्न..... भगवान आत्मा..... कर्म तो जड़ अजीवतत्त्व है । शरीर भी अजीवतत्त्व है, भिन्न है । जब अपने आत्मा को देखा जाता है..... भिन्न है - ऐसा देखा जाता है। समझ में आया? यह तो कल कहा था न ? भगवान ने आत्मा को कैसा देखा है ? मलिन पर्याय दिखे तो मलिन पर्याय तो आस्रवतत्त्व की है । वास्तव में वह आत्मतत्त्व है ही नहीं, वह आस्रवतत्त्व है । आहा... हा... ! आत्मा भगवान है । सर्वज्ञदेव त्रिलोकनाथ परमेश्वर ने ऐसा आत्मा देखा जाना है। ओहो... ! वह तो पूर्णानन्द प्रभु है । रागादि, आस्रवतत्त्व में जाते हैं; कर्म, शरीर अजीवतत्त्व में जाते हैं - ऐसा सामान्य - विशेषगुण का पिण्ड प्रभु... कहते हैं कि शरीर और कर्मों से भिन्न देखने में आवे तो वह शुद्ध ही दिखता है। मुमुक्षु : कब ? उत्तर : ऐसा है । अभी, कब क्या ? नवरंगभाई ! परन्तु शुद्ध है, यह तो सिद्ध किया । जिसे आत्मा कहते हैं, ज्ञायकभाव कहते हैं, उसमें आस्रव कहाँ आया ? पर्यायतत्त्व जो आस्रव है, वह तो ज्ञायकभाव तत्त्व से भिन्न है । हैं ? आहा... हा... ! शरीर, कर्म तो अजीवतत्त्व
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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