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________________ वीर संवत २४९२, आषाढ़ कृष्ण ३, गाथा ७१ से ७४ मंगलवार, दिनाङ्क ०५-०७-१९६६ प्रवचन नं. २६ यह योगसार शास्त्र चलता है। इकहत्तर वाँ श्लोक है। क्या कहते हैं ? पुण्य को भी पाप जाने, वही ज्ञानी है। पाप को तो पाप सब कहते हैं। आत्मा में जो अशुभभाव - हिंसा, झूठ, चोरी, विषयभोग, वासना के पाप को तो पाप सब कहते हैं परन्तु धर्मी जीव अपने शुद्धस्वरूप की दृष्टि होने से मेरा आत्मा शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप है – ऐसे श्रद्धा में ज्ञान में लिया है, इस कारण से धर्मी जीव तो दया, दान, व्रत, भक्ति, तप का जो शुभभाव होता है, उसे भी पाप मानते हैं। समझ में आया? उस पुण्यभाव को भी धर्मी पाप मानते हैं, क्योंकि पुण्य है, वह बन्ध का कारण है। जैसे पापभाव बन्ध का कारण है, वैसे ही पुण्यभाव भी बन्ध काही कारण है; दोनों जहर हैं, दोनों आकुलता है। आहा...हा...! देखो! धर्मी शुभ और अशुभ दोनों भावों से विरक्त रहता है... धर्मी जीव उसे कहते हैं कि आत्मा आनन्द और ज्ञानस्वरूप से भगवान भण्डार आत्मा भरा है, उसकी श्रद्धा और दृष्टि होने से आत्मा के स्वभाव से विपरीत जितने शुभ या अशुभभाव हैं; अशुभभाव जैसे बन्ध का कारण है, वैसे ही शुभ(भाव) बन्ध का ही कारण है। समझ में आया? एकान्त है। ए... देवानुप्रिया! एकान्त होता है, कहते हैं। देखो! कर्मों का क्षय करनेवाला और आत्मा को आनन्द देनेवाला... कर्मक्षयकारक आत्मानन्ददायक एक शुद्धोपयोग को ही मान्य करता है। आहा...हा...! समझ में आया? आत्मा पवित्र आनन्द शुद्ध चिदानन्दमूर्ति है। जैसा सिद्धस्वभाव, परमात्मा का जैसा सिद्धस्वभाव है, वैसा आत्मा का स्वभाव अन्दर पूर्ण शुद्ध है। उसकी दृष्टि करके धर्मात्मा एक रागरहित, पुण्य-पाप के भावरहित अपने शुद्धस्वरूप के शुद्ध आचरण को ही हितकर मानते हैं । समझ में आया?
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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