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________________ २० गाथा-७१ पुण्य का अनुभव सुखरूप है, पाप का अनुभव दुःखरूप है। ये दोनों ही अनुभव आत्मा के स्वाभाविक अनुभव से विरुद्ध हैं। सुख...सुख । कैसा मिला पुण्य का फल मीठा कहते हैं दोनों ही अनुभव आत्मा के स्वाभाविक अनुभव से विरुद्ध हैं। भगवान अतिन्द्रिय आनन्द, अपना अतिन्द्रिय शुद्ध सुख, अपना अतिन्द्रिय शुद्ध सुख के अनुभव से पुण्य पाप के भाव अत्यन्त विभाव विरुद्ध भाव है। विरुद्ध भाव है उसमें एक ठीक है और दूसरा अठीक है । ऐसा नहीं आता। अद्भुत बात, भाई ! कल आया था न? विरला सुने तत्व को, इस बात को कोई विरला सुनता है। सुननेवाला कहे नहीं, नहीं ऐसा नहीं होता, ऐसा नहीं होता। कुछ पुण्य चाहिये। पुण्य से यह होता है ऐसा सुननेवाले बेचारे झुण्ड के झुण्ड हैं। पुण्य और पाप दोनों बन्धनरूप, दुःखरूप, आत्मा के अनुभव से विरुद्ध, स्वभाव से विभावरूप भिन्न हैं। ज्ञानी उन्हें लाभदायक नहीं मानते हैं। आहा...हा...! ___ दोनों अनुभव कषाय की कलुषिता का स्वाद है। दोनों का स्वाद (कलुषित है) शुद्धात्मा में रमणता का घातक है। दोनों ही अनुभव कषाय का कलुषिता का स्वाद है। पुण्यभाव का स्वाद कषाय का, पापभाव का स्वाद कषाय का। कषाय समझे? विकार । दोनों में विकार का स्वाद है। मुमुक्षु : विकार कम ज्यादा होता है। उत्तर : कम ज्यादा, जाति एक है न? दोनों दुःख की जाति हैं। पुण्य और पाप दोनों ही नए बन्ध के कारण हैं। दोनों में तन्मय होने से कर्म का बन्ध होता है। ठीक लिखा है। पुण्य और पाप दोनों भाव में तन्मय होने से बन्ध होता है। यह बन्ध मोक्षमार्ग में विरोधी है। यह पुण्य परिणाम मोक्षमार्ग का विरोधी है। पुण्य-पाप आत्मा के धर्म के लुटेरे हैं। शशीभाई ! वीतरागमार्ग की बात पामर (जीव) नहीं झेल सकते। आहा...हा...! ऐसा जानकर ज्ञानी जीव पाप की तरह पुण्य को भी अच्छा या ग्रहण योग्य नहीं मानते वे शुभ और अशुभ दोनों भावों से विरक्त रहते हैं, कर्म का क्षय करनेवाला और आत्मा को आनन्दित देनेवाला ऐसे एक शुद्धोपयोग को भी मान्य कहते हैं।आहा...हा...! विशेष कहेंगे... (श्रोता – प्रमाण वचन गुरुदेव।)
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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