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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) २०३ सम्यग्दृष्टि छूटने के मार्ग का पथिक है । आहा... हा... ! यह स्वीकार कौन करे ? समझ में आया? यह किसी को पूछने नहीं जाना पड़ता कि हे भगवान! मेरे कितने भव हैं ? परन्तु मेरी चीज में भव ही नहीं हैं। कल नहीं आया ? भगवान आत्मा को भव का परिचय नहीं है, कलश में आया न ? ठीक है । वस्तु पदार्थ, चैतन्य ज्योत अनन्त गुण का सार, रसकस - चीज को भव का भाव या भव का परिचय बिलकुल नहीं है। यह तो पर्याय के अंश में राग का, भव का परिचय है । पर्यायबुद्धि, अंशबुद्धि छूट गयी, स्वभावबुद्धि हुई – ऐसे स्वभाव में भव का परिचय, भगवान आत्मा में और आत्मा को है ही नहीं । सम्यग्दृष्टि को भी भव की शंका नहीं है - ऐसा कहते हैं। मैं नि:शंक मुक्त होनेवाला ही हूँ, अल्प काल में ही मेरी मुक्ति है, मैं अल्प काल में केवलज्ञान प्राप्त करूँगा। मुझे दूसरी बात है ही नहीं । समझ में आया ? यह नि:सन्देहपना, नि:शंकपने का अनुभव तो अपनी दृष्टि का विषय हुआ । यह कहीं बाहर की चीज है ? समझ में आया ? कहते हैं, भगवान आत्मा.... अपना सम्पूर्ण धर्म, धर्म, सम्पूर्ण धर्मी को धर्म में धार लिया। दृष्टि में सम्पूर्ण आत्मा को धार लिया । सम्पूर्ण पूर्णानन्द प्रभु दृष्टि में आ गया। उसमें भव है ही नहीं, और भव के अभाव तरफ की पर्याय में गति हो गयी । निःसन्देह हो गया, एक दो भव मेरे पुरुषार्थ की कमी है तो होंगे, तो वह राग के कारण से है, मेरे ज्ञान का ज्ञेय है । मेरी स्वामित्व की चीज नहीं, वह मेरी चीज ही नहीं । सहजात्मस्वरूप पूर्णानन्द ही मेरी चीज और मैं उसका स्वामी हूँ । समझ में आया ? आहा...हा... ! सम्यग्दर्शन की महत्ता क्या ? फिर थोड़ा लेंगे, रत्नकरण्ड श्रावकाचार में से दो गाथाएँ लेंगे। वस्तु... एक समय की पर्याय में दोष है, एक समय की दशा में दोष है, वरना सम्पूर्ण आत्मा निर्दोष का पिण्ड है । अत: जब रुचि, एक समय के दोष के सम्बन्ध की रुचि छूट गयी, मेरे स्वभाव में यह एक समय का बन्ध है ही नहीं, स्वभाव में है ही नहीं । आहा... हा... ! यह-वह किसकी दृष्टि काम आयेगी वहाँ ? भगवान के वचन वहाँ काम आयेंगे? अपने आप भगवान आत्मा निःसन्देह होकर अपना शुद्धस्वभाव का दृष्टि में परिणमन हुआ तो
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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