SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) १९३ छठवें या सातवें गुणस्थान में हैं। यह तो सब व्यवहार का विषय है, छोड़ देने का अर्थ लक्ष्य छोड़ देना। वस्तु नहीं कहीं ? लक्ष्य छोड़ देना, उसका आश्रय छोड़ देना । वस्तु कहाँ चली जाएगी ? हम मनुष्यगति में हैं, हम सैनी पञ्चेन्द्रिय हैं... पुरुष हैं, यह सब भेद है। हम भव्य हैं, हम सम्यग्दृष्टि हैं, हम संज्ञी हैं... इस प्रकार गुणस्थान तथा मार्गणा स्थानों का विचार अथवा कर्मों के आस्रवभावों का विचार अथवा चार प्रकार के बन्ध का विचार अथवा संवर, निर्जरा के कारण का विचार, यह सर्व व्यवहारनय द्वारा विचार करना चञ्चलताजनक है । चञ्चल लिया। शुभोपयोगमय है, इसलिए बन्ध का कारण है। देखो, यहाँ लिया। यह शुभोपयोगमय है, अशुभ नहीं। 'धवल' में दूसरा नहीं है... पण्डितजी ने 'धवल' नहीं पढ़ा ? अपने विमलचन्दजी ने बहुत पढ़ा है। विमलचन्दजी, नहीं ? पण्डितजी ! विमलचन्दजी नहीं ? उन्होंने बहुत पढ़ा है, उनका अभ्यास बहुत है । 'धवल', 'जयधवल', 'महाधवल', का बहुत अभ्यास है। पृष्ठ - पृष्ठ का कह दे, बहुत अभ्यास । उन्होंने दो ही अभ्यास किया, एक इंजीनियर का, ( उसे) छोड़कर यह किया। दूसरा कोई नाटक - फाटक, फिल्म-विल्म (कुछ नहीं) । युवा अवस्था, अभी विवाह करके आया था, पाँच दिन रह गया। अभी विवाह हुआ । साढ़े चार सौ - पाँच सौ का वेतन है । विवाह करके आया था, अभी पाँच दिन रह गया, उसका अभ्यास बहुत है । 'धवल', 'जयधवल', 'महाधवल', का बहुत अभ्यास, बहुत अभ्यास, याददाश्त भी बहुत है । मुमुक्षु : विशेष प्रकार..... उत्तर : विशेष प्रकार नहीं, दृष्टि (बदले) बिना, विशेष प्रकार होता ही नहीं । यह तो पहले-पहले आया तब कहता था, महाराज! आप जो कहते हो, वह यथार्थ है । धवल में निमित्त प्रधानता से कथन है, क्योंकि शास्त्र में ऐसा लिखे, लो ! 'समयसार' में तीसरी गाथा में (ऐसा लिखते हैं) एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को कभी भी स्पर्श नहीं करता । एक द्रव्य अपने अनन्त गुणों का चुम्बन करता है परन्तु अन्य द्रव्य का चुम्बन / स्पर्श नहीं करता । पण्डितजी! तीसरी गाथा में । एयत्तणिच्छयगदो समओ सव्वत्थ सुंदरो लोगे । वहाँ टीका में (आता है) धवल में ऐसा लिया है कि आत्मा, आत्मा को स्पर्शता है, आत्मा
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy