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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) १८९ में रमेगा तो मोक्ष हो जाएगा। बन्ध और मोक्ष की यह व्याख्या की। बन्ध है, पर्याय में रुकता है, वह भावबन्ध है, कर्म का बन्ध होता है, वह दूसरी बात; और राग से छूटकर वीतराग पर्याय पर्ण हो तो मोक्ष भी है परन्त उस पर्याय का पर्याय में मोक्ष और पर्याय में बन्ध है। अंश में मुक्ति और अंश में बन्ध – ऐसा लक्ष्य करने से तो निर्धान्त / निःसन्देह बँधेगा। देखो, इसमें किस प्राणी को मारा? किसे बचाया? किसने मारा? कि बँधेगा? भगवान उसका हेतु है न! तेरा स्वरूप अखण्ड ज्ञायकमूर्ति प्रभु है, उसकी रमणता कर तो तुझे संवर -निर्जरा होगी और मुक्ति होगी। शान्त... शान्त... शान्त... कषाय परिणमन पूर्ण होगा और मुक्ति होगी। यह भावबन्ध और मोक्ष दो पर्याय का लक्ष्य करेगा तो निश्चय से वास्तव में राग होकर बँधेगा। समझ में आया? पर्यायदृष्टि-व्यवहारनय का आश्रय करने से बन्ध होता है, बस! यह सिद्ध करना है। अपना प्रयोजन पर्याय के लक्ष्य से सिद्ध नहीं होता क्योंकि जो निर्मलपर्याय प्रगट होती है, उस पर्याय में से पर्याय नहीं होती। समझ में आया? एक न्याय तो 'नियमसार' में पचासवीं गाथा में ऐसा भी कह दिया है कि अपनी पर्याय क्षायिक समकित की हो तो भी परद्रव्य है । क्षायिक समकित भी परद्रव्य है। उपशम, उदय (आदि) चार भाव परद्रव्य है - ऐसा पचासवीं (गाथा में) कहा है। क्यों? इसलिए कि जैसे परद्रव्य में से अपनी नयी निर्मल पर्याय उत्पन्न नहीं होती, इसी प्रकार उस पर्याय में से नयी पर्याय तो उत्पन्न नहीं होती, इस अपेक्षा से चारों भावों को (परद्रव्य कहा है) । जो पर्याय के चार भाव हैं – राग, उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक, चारों को ही परद्रव्य कह दिया है क्योंकि चारों भावों में से नयी पर्याय उत्पन्न नहीं होती। नयी पर्याय की खान तो भगवान आत्मा ध्रुव... ध्रुव... नित्यानन्द प्रभु है, उसे स्वद्रव्य कहा। उन्हें (चार भावों को) परद्रव्य कहा है। इस अपेक्षा से परद्रव्य, हाँ! है तो उसकी पर्याय । आहा...हा...! परद्रव्य, परभाव इति हयं – ऐसा पचासवीं गाथा में तीन बोल लिये हैं। समझ में आया? वास्तविक तत्त्व का ख्याल न हो और उसे कल्याण हो जाए, कैसे हो? कल्याण की खान तो आत्मा है, उसकी एकरूप दृष्टि हुए बिना कल्याण का बीज कहाँ से उगेगा? सम्यग्दर्शन, ज्ञान, मोक्ष का बीज कहाँ से उत्पन्न होगा?
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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