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________________ १८८ गाथा-८७ जइ बद्धउ मुक्कउ मुणहि तो बंधियहि णिभंतु । सहज-सरूवइ जइ रमहि तो पावहि सिव सन्तु ॥ ८७ ॥ आहा...हा...! भगवान आत्मा ! यदि तू बन्ध-मोक्ष की कल्पना करेगा तो तू निःसन्देह बँधेगा... पर्यायदृष्टि हुई न, पर्यायदृष्टि । राग का बन्ध है, वह राग छूटेगा तो मुक्ति होगी – ऐसे दो प्रकार के विचार, विकल्प का कारण हैं, विकल्प है। समझ में आया ? भगवान सहजात्मस्वरूप पूर्ण शुद्ध एकरूप सहजात्मस्वरूप पूर्ण स्वरूप एकरूप का अन्दर ध्यान कर। यह मुक्ति का उपाय है। 'बद्धउ मुक्कउ मुणहि' यदि बन्ध और मोक्ष, दो, पर्यायदृष्टि से देखने जाएगा तो निश्चय से बँधेगा।‘णिभंतु' भ्रान्ति बिना तुझे बन्ध होगा। आहा... हा...! (कोई कहे) बन्ध है नहीं ? सुन तो सही, प्रभु ! यहाँ तो व्यवहारनय का विषय बन्ध-मोक्ष, उसे छुड़ाते हैं । उसका आश्रय करने से विकल्प होता है। यह 'योगसार ' है । योगस्वरूप एकाकार में लीन होना, उसमें भेद करके बन्ध और मोक्ष का विचार न करना, उसका नाम योगसार / स्वरूप की एकता के भाव को कहते हैं। यदि तू बन्ध-मोक्ष की कल्पना करेगा... आचार्य भी कड़क हैं न ! देखो, 'णिभंतु बंधयइ' निसन्देह बँधेगा । भगवान आत्मा एक स्वरूप के अतिरिक्त दो प्रकार का विचार होगा तो निश्चय से विकल्प होगा और विकल्प होगा तो बन्ध होगा। भले वह विकल्प शुभ है क्योंकि बन्ध और मोक्ष का विचार, वह कोई अशुभ नहीं है परन्तु है तो शुभ, तथापि है बन्ध का कारण । आहा... हा... ! समझ में आया ? 'जइ सहज-सरुवई रमहि' यदि तू भगवान सहजात्मस्वरूप में रमणता करेगा..... एकरूप प्रभु... पर्यायदृष्टि को छोड़कर, व्यवहारनय के विषय को छोड़कर, यदि अकेले भगवान पूर्णानन्द प्रभु में रमण करेगा तो शान्त मोक्ष को प्राप्त करेगा । शान्ति... शान्ति... शान्ति... पूर्ण शान्ति... निर्वाण ... पूर्ण शान्ति को प्राप्त करेगा । (उस विकल्प में) बन्ध होगा। दो बातें की हैं । देखो, एक श्लोक में क्या कहा ? बन्ध और मोक्ष - ऐसी पर्यायदृष्टि का विचार करेगा तो निःसन्देह बँधेगा। एकस्वरूप सहजानन्द प्रभु, एकरूप परमात्मा अपने स्वरूप
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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