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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) १८५ पवेसणं' मुनि नौ कोटि से त्यागी है परन्तु कैसा अर्थ करना? – वह समझना चाहिए या नहीं? (ऐसा कहते हैं) यह यहाँ लिखा है, व्यवहार में प्रवेश करने का कहते हैं । भाई ! उसका आशय क्या है, वह समझना चाहिए न ! सन्त मुनि हैं, आहा...हा... ! नव-नव कोटि से जिन्हें विषय का त्याग है। ब्रह्म में रङ्ग लगा है, आनन्दकन्द में रङ्ग लग गया है, समझ में आया? कोई विषय करे, कराये, अनुमोदन करे (- ऐसा नहीं होता।) उनके विकल्प में मन, वचन, काया में कृत, कारित अनुमोदन में करना नहीं होता। आहा...हा...! परन्तु वे कहते हैं, भगवान ! खराब संग में पड़कर यदि तुझे मिथ्याश्रद्धा हो जाएगी, ऐसी कुयुक्ति, कुतर्क से बैठा देंगे तो तेरी श्रद्धा विपरीत हो जाएगी; इस दोष की तुलना में स्त्री के संग में तो राग का / चारित्र का दोष है। यह यहाँ कहते हैं लालसा, स्त्री (छोड़) न सके तो गृहस्थाश्रम में रहो (और) यथाशक्ति आत्मा का मनन करना... रहो अर्थात् कोई राग करने का कहते हैं ? रहने का नहीं कहते परन्तु कमजोरी है, कमजोरी है, पर में सुखबुद्धि नहीं, तथापि अन्दर आसक्ति का भाव दिखता है तो आसक्ति के परिणाम छूटते नहीं, भाव देखते हैं न? वहाँ तक गृहस्थाश्रम में रहकर अपने स्वरूप का साधन, ध्यान करो। श्रद्धा-ज्ञान और स्थिरता का, निश्चयरत्नत्रय का ध्यान करो। समझ में आया? देखो ! स्त्रीसहित रहकर ही यथाशक्ति... यह तो रहकर कहा और वहाँ (मूलाचार में) विवाह में प्रवेश करना एक ही कहा। जब विषयों की लालसा न रहे... परिणाम में ऐसा लगे कि अब विषयों की प्रीति छूट गयी है... रुचि तो छूट गयी परन्तु प्रीति, आसक्ति छूट गयी है – ऐसी आसक्ति नहीं है कि स्त्री को छोड़ दिया, इसलिए आसक्ति छूट गयी। अन्तर में उस राग में जरा अन्दर मिठास, आसक्ति आती है। आसक्ति है, हाँ! रुचि नहीं, है तो दुःख; है तो उपसर्ग परन्तु वह आ जाता है। वह लालसा जब तक न छूटे, तब तक गृहस्थाश्रम में रहकर ही अपना ज्ञान-ध्यान, श्रद्धा करो। मन में से विषय-विकार निकल जाये... देखो ! मन में से (कहा है)। बाहर से तो क्या, स्त्री अनन्त बार छोड़ी, उसमें क्या आया? अन्तर में आनन्द की दृष्टि और आनन्द के मौज में वह आसक्ति छूट जाए तो मुनिपना ले लो और मुनिपना ही साक्षात् मोक्ष का
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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