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________________ गाथा - ८५ ज्ञान और चारित्र – तीनों अन्दर में एकाकार हुए तो तीन गुप्ति हो गयी। वहाँ तीन गुप्ति हो गयी, मन-वचन-काया, सबका अवलम्बन नहीं रहा । इसमें ही तीनों गुप्ति हो गयी । ओ...हो... ! पाँच इन्द्रियों का निरोध स्वयं हो गया। लो! पाँच इन्द्रियों का लक्ष्य नहीं रहा । अतीन्द्रिय पर स्वयं एकाकार हो गया। उसका नाम संयम है। समझ में आया ? उसका नाम उत्तम क्षमा है, इत्यादि दूसरे धर्म ले लेना । १७२ समस्त ही शुद्धगुणों को निवास आत्मा में है। जिसने आत्मा का आराधन किया, उसने सर्व आत्मिक गुणों को आराधन कर लिया । आत्मा के ध्यान से ही आत्मा के गुण विकसित होते हैं। विकसित अर्थात् पर्याय में प्रगट होते हैं। समझ में आया? श्रुतज्ञान की पूर्णता होती है। अपने स्वरूप में एकाकार होने से श्रुतज्ञान की पूर्णता होती है। पढ़ने-लिखने से कोई पूर्ण ज्ञान होता है ? अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान की रिद्धि प्रगट होती है... यह रिद्धि है, वह साधन नहीं है । अवधि, मन:पर्यय (ज्ञान) कहीं मोक्ष का साधन नहीं है परन्तु बीच में रिद्धि (प्रगट होती) है। आहा... हा... ! मति - श्रुतज्ञान तो साधन है, स्वरूप में एकाग्रता होकर केवलज्ञान लेते । यह तो बीच में एक रिद्धि आती है । अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान की रिद्धि प्रगट होती है, केवलज्ञान का लाभ होता है... लो ! निर्वाण का परम उपाय एक आत्मा का ध्यान है... लो ! तत्त्वानुशासन में कहा है - जो वीतरागी आत्मा, आत्मा में आत्मा के द्वारा आत्मा को देखता है और जानता है, वह स्वयं सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप होता है। दृगवगमचरणरूपस्य ऐसा है न ? तीसरा पद । आहा... हा...! 'तत्त्वानुशासन... ' समझ में आया ? स्वयं सम्यग्दर्शन आदि (रूप होता है) इसलिए निश्चय मोक्षमार्गस्वरूप है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं। जिनोक्तिः ऐसा है । देखो, ओ..हो... ! दिगम्बर सन्त भी जहाँ-तहाँ भगवान को मुख के आगे रखते हैं, हाँ ! परमात्मा ऐसा कहते हैं, भाई ! हम कहते हैं, वह परमात्मा कहते हैं । सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ (कहते हैं) इनकार मत करना, हाँ! इनकार मत करना । हैं? बहुत दया, करुणा ( करके कहते हैं) भाई ! मार्ग तो ऐसा है प्रभु ! केवली ऐसा कहते हैं। देखो, इसमें भी केवली आया । उसमें (छियासी गाथा में)
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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