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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) १५३ तो तेरे कल्याण का काल चला जाएगा। छोड़ दे, हम ऐसा करते हैं और अभी तक माना, माना छोड़ न ! सत्य को ले न ! उसमें क्या है। कहते हैं, शास्त्रों को ठीक-ठीक जानने पर भी जहाँ तब स्वानुभव... 'अनुभव रत्न चिन्तामणि अनुभव है रसकूप अनुभव मारग मोक्ष का अनुभव मोक्षस्वरूप' बस ! अनुभव एक ही मोक्ष का मार्ग है । रत्नत्रय उसमें (होता है) । अनुभव - भगवान जैसा है, उसे अनुसरण कर दशा में होना, वेदन में आना - ऐसे श्रद्धा - ज्ञान - चारित्र को अनुभओ । सम्यग्दर्शन के प्रकाश होते ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है । मुमुक्षु को उचित है कि आत्मा के श्रद्धान व ज्ञान में बार-बार रमण करे। यह चारित्र | बार-बार भावना भावे । भावना में चलना सो चारित्र है । भावना में रहना, वह चारित्र है । जहाँ आत्मा आपसे आप में स्थिर हो जाता है, वहाँ रत्नत्रय की एकता होती है। वही मोक्षमार्ग है । रत्नत्रय धर्म निज आत्मा का स्वभाव ही है। लो ! पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा है अपने आत्मा का निश्चय, वह सम्यग्दर्शन है। दर्शनमात्मविनिश्चिति भगवान अमृतचन्द्राचार्यदेव, पुरुषार्थसिद्धयुपाय में फरमाते हैं। महा अमृतचन्द्राचार्यदेव... आहा... हा...! अभी नौ सौ वर्ष पहले भरतक्षेत्र में थे, ऐसे चलते थे, भिक्षा / आहार के लिए जाते थे, आहा... हा... ! वे तो सिद्ध... सिद्ध ! विकल्प बाहर, शरीर बाहर, अभी तो नौ सौ वर्ष पहले... भगवान अमृतचन्द्राचार्यदेव अकेले अमृत का घोलन करनेवाले ! कहते हैं आत्मा का निश्चय सम्यग्दर्शन, अपनी आत्मा का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, अपने आत्मा में स्थिरता सम्यक्चारित्र है, इन तीनों से कर्म बन्ध नहीं होता। समझ में आया ? ✰✰✰ आत्मानुभव में सब गुण हैं जहिं अप्पा तहिं सयल-गुण केवलि एम भांति । तिहि कारणएँ जोइ फुडु अप्पा विमलु मुणंति ॥ ८५ ॥ जहाँ चेतन तहाँ सकल गुण, यह सर्वज्ञ वदन्त । इस कारण सब योगिजन ! शुद्ध आतम जानन्त ॥
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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