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________________ गाथा - ८४ है, स्थिर नहीं । स्थिर नहीं, उस पर लक्ष्य करने से तो अस्थिर विकल्प उत्पन्न होता है । यह वस्तुबिम्ब स्थिर ... स्थिर ... स्थिर... ध्रुव अनादि अनन्त है; जिसमें अनादि-अनन्त ऐसा काल भेद भी नहीं है, एकरूपता (है)। उसमें बारम्बार रमण करना, लीनता करना, रमना, आनन्द का अनुभव (करना), बारम्बार अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव करना, उसका नाम पवित्र चारित्र है। (उसे) मोक्ष का मार्ग कहते हैं । अद्भुत बात, भाई ! अट्ठाईस मूलगुण और पञ्च महाव्रत तो कहीं रह गये, वह तो विकल्प है भगवान ! भाई ! यहाँ तो मार्ग तो स्वस्वभाव में से आता है या परलक्ष्यी राग में से आता है ? भगवान अन्तर परिपूर्ण पड़ा है न, प्रभु ! इसे विश्वास नहीं है । अनन्त... अनन्त... चैतन्यरत्नाकर... ओ...हो... ! समझ में आया ? १४२ एक आकाश का अस्तित्वगुण लो तो सम्पूर्ण व्यापक है । यहाँ अस्तित्वगुण लो तो भी इतने में व्यापक है, पूर्ण है। ऐसा नहीं है कि इतने क्षेत्र में ज्ञानगुण है तो थोड़ा है, अस्तित्व थोड़ा और आकाश अनन्तगुने क्षेत्र में व्यापक है तो बड़ा है - ऐसा नहीं है । क्षेत्र से बड़ा, उसकी महत्ता नहीं है; उसके भाव की महत्ता है। भगवान आत्मा असंख्य प्रदेश के धाम में जो अनन्त गुण हैं, एक-एक गुण की महान अनन्त... अनन्त... सामर्थ्य है, महानता है। ऐसे एकरूप सामर्थ्य (स्वरूप) द्रव्य में लीन होना, वह चारित्र है । वास्तव में वह चारित्र मोक्ष का मार्ग है । चारित्र का कारण दर्शन, ज्ञान है। दर्शन - ज्ञान के बिना (चारित्र नहीं), परन्तु वास्तव में मोक्ष का मार्ग तो चारित्र चारित्तं खलु धम्मो ( है ) । समझ में आया ? परन्तु यह चारित्र । मुमुक्षु : एकाग्र अर्थात् बारम्बार स्थिर होना । उत्तर : बारम्बार का अर्थ उसी उसी में एकाग्र होना ऐसा। बारम्बार विकल्प में आ जाए न ? अस्थिरता (हो) अमुक स्थिरता तो कायम होती है परन्तु अन्तर में जमने की (बात है)। एकाकार निर्विकल्प शुद्धोपयोग में से हट जाए, फिर निर्विकल्प उपयोग में आना, ऐसा। अमुक चारित्र की स्थिरता तो कायम होती है। समझ में आया ? यहाँ पुणु पुणु कहा, उसका अर्थ यह कि निर्विकल्प उपयोग में बारम्बार आना, बारम्बार आना। पञ्च महाव्रत आदि के विकल्प आ जाते हैं परन्तु बारम्बार वहाँ जम जाने का नाम पवित्र
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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