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________________ १२२ गाथा - ८२ दुःख आता है – ऐसे दुःख से उसमें जुड़ान होता है। समझ में आया ? मेरा धन मेरे पास है। देखो, मलूकचन्दभाई ! उस लक्ष्मी की आवश्यकता नहीं रही । मेरे आत्मा में अनन्त ज्ञान और अनन्त आनन्द पड़ा है। (ऐसी) मेरी लक्ष्मी मेरे पास है । सम्यग्दृष्टि इतना छोटा मेढ़क हो या हजार योजन का मच्छ हो.... स्वयंभूरमण समुद्र में सम्यग्दृष्टि होते हैं, हाँ ! वे मानते हैं कि मेरी लक्ष्मी मेरे पास है । आहा... हा... ! मेरा धन, पुण्य-पाप का भाव होता है, उसमें भी मेरा धन नहीं है और बाहर में पुण्य-पाप का फल संयोग प्राप्त हो, उसमें भी मैं नहीं हूँ; मेरी लक्ष्मी उसमें है ही नहीं । ओ...हो... ! समझ में आया ? इस प्रकार सम्यग्दृष्टि त्यागी... देखो ! इस प्रकार सम्यग्दृष्टि गृहस्थाश्रम में होने पर भी त्यागी, श्रद्धा और ज्ञान परिणति की अपेक्षा से परम संन्यासी है... श्रद्धा, ज्ञान की परिणति की अपेक्षा से... देखो ! पर्याय । अपना शुद्धस्वभाव, मैं आत्मा हूँ - ऐसी श्रद्धा और मैं ज्ञान हूँ - ऐसी पर्याय में परिणति, ऐसी अवस्था के कारण से आत्मा में पर का परम त्यागी है । आहा...हा... ! उसे (अज्ञानी को) चुभता है कि नहीं... नहीं । अरे! सुन तो सही, प्रभु! जहाँ भ्रान्ति गयी और अनन्तानुबन्धी का अभाव हुआ, वहाँ पर का स्वामीपना गया। अपना सहजात्मस्वरूप का स्वामी रहा तो दृष्टि में पर का त्यागी हुआ । है ? सहजात्मस्वरूप चैतन्यस्वामी । मैं तो सहजात्मस्वरूप चैतन्यस्वामी हूँ । रागादि मेरी चीज है, वह स्व और मैं उसका स्वामी (-ऐसा ) नहीं है । सम्यग्दर्शन में रागादि का इतना त्याग दृष्टि में और ज्ञान की परिणति में आ जाता है । आहा... हा...! समझ में आया ? बाहर का त्याग करके बाहर से साधु हो जाये परन्तु अन्तर में अपनी शुद्ध श्रद्धा, अपनी परमानन्द की मूर्ति की श्रद्धा नहीं है राग की दया दान की क्रिया को अपनी मानता है। कहते हैं कि वह तो मूढ़ है। राग का आदर करता है तो राग का आंशिक भी त्याग नहीं है। समझ में आया ? राग - दया, दान, व्रत, भक्ति का विकल्प उत्पन्न होता है, वह कषाय का मन्दपरिणाम अपने स्वरूप से बाहर है। उस बाह्य को अपना मानता है और उससे लाभ मानता है, उसे आंशिक भी राग का त्याग नहीं तो बाह्य पदार्थ का असद्भूत व्यवहारनय से त्याग कहने में आवे वैसा भी त्याग वहाँ नहीं है। समझ में आया ?
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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