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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) १११ लीन होना, उसका नाम सच्चा चारित्र है, वह आत्मा है। वह चारित्र है, नग्नपना चारित्र नहीं है; अट्ठाईस मूलगुण का विकल्प है, वह चारित्र नहीं है। अट्ठाईस मूलगुण पालना, वह चारित्र नहीं है, वह तो राग है । व्यवहारचारित्र कहते हैं, कब? यदि निश्चयचारित्र होवे तो; अपना शुद्ध स्वरूप चारित्रमय है, शान्त वीतरागस्वरूप है, उसमें दृष्टि लगाकर स्थिर होना, वह चारित्र आत्मा ही है क्योंकि आत्मा के साथ वह निर्मल पर्याय अभेद हुई, महाव्रत का रागादि उत्पन्न होता है, वह तो भेद हुआ। राग भेद पड़ता है, वह सच्चा चारित्र नहीं है। आत्मा ही संयम है... लो, समझ में आया कुछ? इसकी व्याख्या बाद में करेंगे, हाँ! आत्मा शील है... और आत्मा तप है... आत्मा तप है और आत्मा ही प्रत्याख्यान अथवा त्याग है। लो! एक ही प्रत्याख्यान, त्याग है। यह अपने यहाँ विस्तार से आ गया है। ___ आत्मा के स्वभाव में रमणता होने पर सभी मोक्ष के साधन निश्चयनय से प्राप्त हो जाते हैं। (भावार्थ की) पहली लाइन । भगवान आत्मा पूर्णानन्दस्वरूप शुद्ध ध्रुव शाश्वत् वस्तु में रमणता होने पर अपने शुद्ध स्वभाव में लीनता, रमणता होते ही सभी मोक्ष के साधन निश्चयनय से... यथार्थरूप से प्राप्त हो जाते हैं। इसके सिवाय मोक्ष का साधन अन्य किसी से नहीं होता। व्यवहारनय से देव-शास्त्र-गुरु और जीवादि सात तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। विकल्प, शुभराग। व्यवहारनय से, हाँ! देव-शास्त्र-गुरु का श्रद्धान, सात तत्त्वों का (श्रद्धान) । निश्चय से उस आत्मा का ही निज गुण है। जहाँ श्रद्धा और रुचि सहित आत्मा में स्थिरता की जाती है... देखा? स्थिरता की जाती है – ऐसा लिया है, वहाँ ही भाव निक्षेपरूप यथार्थ परिणमनशील सम्यग्दर्शन है। है न, इतनी स्थिरता नहीं? समझ में आया? ठीक लिखा है। देव-गुरु-शास्त्र की श्रद्धा, सात तत्त्व की भेदवाली श्रद्धा तो शुभरागरूप है। आत्मा अपना निर्मलानन्द प्रभु शुद्ध स्वभाव से है। उसकी श्रद्धा, रुचि का होना और उसमें परिणमन निश्चय भावनिक्षेप से निर्मलानन्द का परिणमन होना, उसका नाम भगवान सम्यग्दर्शन कहते हैं । वह सम्यग्दर्शन ही आत्मा है । आत्मा से वह निर्मलपर्याय भिन्न नहीं है। देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा का राग, वह तो निर्मलपर्याय से भिन्न विकल्प है, राग है।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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