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________________ गाथा - ८१ सम्यग्ज्ञान जानो ( अप्पा चरणु विसाणि) आत्मा को सम्यक् चारित्र समझो (अप्पा संज सील तउ ) आत्मा ही संयम है, शील है, तप है ( अप्पा पच्चक्खाणि ) आत्मा ही प्रत्याख्यान या त्याग है । ११० ✰✰✰ आत्मरमण में तप-त्यागादि सब कुछ हैं। अप्पा दंसणु णाणु मुणि अप्पा चरणु वियाणि । अप्प संजम सील तउ अप्पा पच्चक्खाणि ॥ ८१ ॥ यह श्लोक तो अपने समयसार में, नियमसार में आता है। आत्मा को ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान जानो... सम्यग्दर्शन कोई देव-गुरु-शास्त्र की श्रद्धा आदि विकल्प, वह सम्यग्दर्शन नहीं है । आहाहा ! आत्मा को सम्यग्दर्शन (जानो)। भगवान आत्मा पूर्ण अनन्त शुद्धभाव से भरा हुआ आत्मा, उसमें अन्तर्मुख होकर दृष्टि निर्विकल्प प्रतीति करना वह आत्मा ही सम्यग्दर्शन है। आत्मा ही सम्यग्ज्ञान है। शास्त्र का ज्ञानादि व्यवहार सम्यग्ज्ञान है। यह निश्चय (सम्यग्ज्ञान), आत्मा का ज्ञान । आत्मा ज्ञानस्वरूप चिदानन्दस्वरूप है, उसका अन्तर में ज्ञान करना, उसका नाम सम्यग्ज्ञान है और वह सम्यग्ज्ञान आत्मा है। आत्मा को सम्यक् चारित्र समझो... आत्मा में निर्विकल्प चारा चरना, 'निर्विकल्प उपयोग में नहीं कर्म का चारा' - ऐसा आता है। 'यशोविजय' । समझे ? भगवान आत्मा पुण्य-पाप के राग से हटकर अपने पूर्ण शुद्धस्वरूप में एकाकार होकर निर्मलता, वीतरागता की पर्याय प्रगट करना, वह चारित्र (और) वह आत्मा है । कहो, समझ में आया ? I मुम्बई में से निकलना हलाहल होता होगा न ? परन्तु उस नगरी में से निकलकर जाना है कहाँ ? उसकी इसे खबर है ? आत्मस्थिति देह की यहाँ पूरी हो जाये, कब होगी इसकी उसे खबर है ? स्थिति तो पूरी हो जानेवाली है। एकदम अन्दर से निकलेगा, उसकी चिन्ता कर न! नगरी में वहाँ कहाँ पड़ा है ? भगवान आत्मा देह छोड़कर चला जायेगा। कहाँ जायेगा ? भगवान आत्मा शुद्धस्वरूप परमानन्द हूँ - ऐसी प्रतीति करके स्वरूप में 1
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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