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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) ३१३ प्रयोग है। बाह्य चारित्र है न यह सब ? पूजा, भक्ति आदि बाह्य चारित्र है, व्यवहार है, विकल्प.... इस अन्तरंग बिना चारित्र, अन्तर में रमणता बिना यह बाहर का चारित्र बालू में से तेल निकालने के समान प्रयोग है। रेत में से तेल निकालना । सम्यग्दर्शन बिना.... अर्थात् क्या कहते हैं? अपना जो स्वरूप है, उसे अन्तर्मुख से प्रतीति किये बिना सर्व ही शास्त्र का ज्ञान व सर्व ही चारित्र मिथ्याज्ञान व मिथ्याचारित्र है । कहो, समझ में आया इसमें ? आहा... हा... ! ऐसा कहकर बहुत बात ली है। थोड़ा सा अन्त में लिया है । पृष्ठ १७९ में - जिसने आत्मदेव को शरीर के अन्दर देख लिया, उसे फिर बाहर की क्रिया में मोह नहीं हो सकता। बाह्य क्रिया आवे अवश्य परन्तु मोह नहीं है । कारणवश अशुभ से बचने के लिए वह बाह्य क्रिया करे तो भी उसे निर्वाण का मार्ग नहीं मानता। यह सब सार है । लक्ष्य में होवे तो सब आ जाता है। बाकी सब लम्बी बात बहुत है । समयसार का दृष्टान्त दिया है। जो परमार्थ से बाह्य है..... समयसार है न ? 'परमट्ठबाहिरा' परमार्थ भगवान आत्मा..... (वहाँ) पुण्य का अधिकार है। तो पुण्यभाव तो शुभभाव है और शुभभाव में लक्ष्य तो पर के ऊपर जाता है । स्वभाव चैतन्यस्वरूप, जिसे उसकी दृष्टि नहीं, उसका आश्रय नहीं ऐसे परमार्थ से बाह्य जीव निश्चयधर्म को नहीं जानते। सच्चे धर्म को नहीं समझते। मोक्ष के मार्ग को नहीं जानते वे अज्ञान से संसार भ्रमण के कारणरूप पुण्य को ही चाहते हैं... उस शुभभाव की ही भावना होती है, उससे मुक्ति होगी - ऐसा मानते हैं। पुण्यकर्म का बंध करनेवाली क्रिया को निर्वाण का कारण मान लेते हैं। - - दूसरा दृष्टान्त दिया है, मोक्षमार्ग का समयसार का - कोई बहुत कष्ट से मोक्षमार्ग से विरुद्ध असत्य व्यवहाररूप क्रियाएँ करके कष्ट भोगता है तो भोगो..... मिथ्यादृष्टि अन्य और कोई जैन में रहनेवाले जैनों के महाव्रत और तप के भार से पीड़ित होते हुए कष्ट भोगते हैं तो भोगो परन्तु उनका मोक्ष नहीं होता है । पर तरफ के लक्ष्य में दया, दान, व्रत, भक्ति, तप से कभी भी मुक्ति नहीं होती है । अरे ! व्यवहार, व्यवहार, व्यवहार.... व्यवहार है अवश्य, परन्तु उससे निश्चय प्राप्त नहीं होता - ऐसा यहाँ सिद्ध करना है। पर के योग से स्व-योग प्राप्त नहीं होता। योगीन्द्रदेव (ऐसा कहते
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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