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________________ ३१२ गाथा-४३ कहते हैं कि तेरे स्वरूप का भजन कर, तब भव का अन्त आयेगा। समझ में आया? हमारा स्मरण करते रहने से, हमारे सन्मुख देखकर मर जाए तो भी कहीं तेरा कल्याण हो - ऐसा नहीं है। है वीतरागमार्ग! परमेश्वर त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ का मार्ग ऐसा है। जगत् तो ऐसा एकान्त मानकर बैठ जाता है कि वहाँ से हमारा मोक्ष होगा, वह मूढ़ है। वैसे ही आत्मा के स्वरूप का आश्रय करके पूर्ण स्थिरता न हो, तब तक ऐसा स्मरण और भक्ति का भाव आये बिना नहीं रहता। अशुभ से बचने के लिए (आता है)। स्थिरता का शुद्ध उपयोग न हो (तब) अशुभ से बचने के लिए ऐसा शुभभाव होता है परन्तु उस व्यवहार से अन्दर में कल्याण होगा - ऐसा मान ले तो वह बात (झूठ है)। आहा...हा...! सामने देखना छोड़कर अन्दर में देखेगा, यह भगवान अन्दर में पूर्णानन्द का नाथ विराजता है 'सिद्ध समान सदा पद मेरो' – यह अन्दर में देखे, तब उसका कल्याण होगा। ज्ञान से देखे, श्रद्धा से माने, स्थिरता से लीन हो, उसमें स्थिर होवे और उसे देखे और माने, स्थिर हो या बाहर से आता होगा? आहा...हा...! कहो समझ में आया? जो बात हो वह स्पष्ट तो आना चाहिए या नहीं। लोक में बड़ा धनाढ्य हो और घर का.... यहाँ कहने का आशय ऐसा है कि पूँजी है घर में.... समझ में आया? पूँजी समझे न? लक्ष्मी है घर में और माँगने जाए वहाँ.... ऐसे यह लक्ष्मी यहाँ अन्दर में पड़ी है – अनन्त केवल ज्ञानादि लक्ष्मी तो यहाँ है, भीख माँगता है भगवान के पास, बाहर के भगवान के पास... हे भगवान! देना, कुछ देना । वे भगवान कहते हैं कि तेरे पास है, मेरे पास नहीं। समझ में आया? देखो! यहाँ इस बात पर लक्ष्य दिलाया है कि जो लोग केवल जिनमन्दिरों की बाहरी भक्ति से ही संतुष्ट होते हैं व अपने को धर्मात्मा समझते हैं, इस बात का बिलकुल विचार नहीं करते हैं कि यह मूर्ति क्या सिखाती है व हमारे दर्शन करने का व पूजन करने का क्या हेतु है, कुछ नहीं समझते.... वे केवल कुछ शुभभाव के पुण्य बाँध लेते हैं परन्तु उनको निर्वाण का मार्ग नहीं दिख सकता है। अन्तरंग चारित्र के बिना बाहरी चारित्र होता है - यह बालू में से तेल निकालने के समान
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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