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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) २७५ जइ णिम्मलु अप्पा मुणहि छंडवि सहु ववहारू। जिण-सामिउ एमइ भणइ लहु पावहु भवपारू॥३७॥ ऐसे शब्द बहुत आते हैं। शीघ्र... शीघ्र... शीघ्र... शीघ्र... मोक्ष... मोक्ष... मोक्ष... आहा...हा... ! जइ णिम्मलु अप्पा मुणहि क्या कहते हैं ? जिनेन्द्र भगवान ऐसा कहते हैं.... जिनस्वामी ऐसा कहा, जिनस्वामी ऐसा कहते हैं। जिनेश्वर त्रिलोक के नाथ परमेश्वर तीर्थंकरदेव की वाणी में हुकम आया है। आहा...हा... ! जिणसामी एमइ भणई यह तीन लोक के नाथ परमेश्वर समवसरण में ऐसा हुकम, आज्ञा करते थे। क्या? जइ सहुववहारु छंडवि णिम्मलु अप्पामुणहि इस व्यवहार का ज्ञान करना - (ऐसा) जो हमने कहा, व्यवहार है उसे जानना, परन्तु उसकी दृष्टि छोड़। व्यवहार को छोड़ और एक आत्मा का आश्रय कर – ऐसा जिन स्वामी का हुकम है। समझ में आया? यह सब अभी विवाद उठा है। वे कहते हैं व्यवहार से होता है। अरे! सुन न व्यवहार छोड़ने की भगवान की आज्ञा है। अधिक लोगों की संख्या है न चीटियों जैसी बड़ी।आहा...हा...! जिणसामी एमइ भणई आहा...हा... ! यह वीतरागरूपी सिंह, वीतराग के सिंह की दहाड़ जैसी वाणी आयी है कि सिंहनाद आया, देखो! कहते हैं। जइ सहुववहारु छंडवि ऐसा जई वापस, हाँ! जई अर्थात् यदि तू सर्व व्यवहार को छोड़ेगा - ऐसा कहते हैं। व्यवहार है, रागादि, पुण्यादि, निमित्तादि हो परन्तु जब तू व्यवहार को छोड़कर निर्मल आत्मा का अनभव करेगा.... भगवान आत्मा चैतन्य प्रभु का अन्तर में एकाग्रता का आत्म-अनुभव करेगा... यदि व्यवहार छोड़ेगा, अनुभव करेगा तो मुक्ति होगी। जब व्यवहार छोड़ेगा तब । तू कहता है व्यवहार... कुछ व्यवहार अरे! सुन न ! समझ में आया? ___तो शीघ्र भव से पार हो जायेगा। भगवान की आज्ञा है, भगवान ने आज्ञा का उपदेश कहा, निर्मल आत्मा का अनुभव करो। यह अनुभव तभी होता है जब सर्व पर के आश्रयरूप व्यवहार का मोह त्यागा जाए। लो, यह ठीक है। पर पदार्थ का परमाणुमात्र भी हितकारी नहीं है। व्यवहार धर्म, व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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