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________________ २७४ गाथा-३६ है। ऐसे का ऐसा चला गया है मुट्ठी बाँधकर... कुछ धर्म करते हैं, सामायिक किया और प्रौषध किया, प्रतिक्रमण किया यात्रा कर आये.... क्या है ? धूल भी नहीं वहाँ, सुन न ! भगवान आत्मा एक समय में सर्वज्ञस्वभावी आत्मा की दृष्टि और अनुभव न करे, तब तक उसे किञ्चित् धर्म नहीं होता। समझ में आया? आहा...हा...! फिर सब लम्बी-लम्बी बातें की हैं। फिर थोड़ा डाला है वज्रवृषभनाराचसंहनन होना जरूरी है, उसके बिना.... ऐसा वीर्य प्रगट नहीं होता। फिर लकड़ी घुसाई है (विपरीतता) १५८ पृष्ठ पर है। यहाँ तो कहते हैं, इस भगवान आत्मा में.... देखो! बाह्य चारित्र तो निमित्तमात्र है। नीचे है १५८ में। यह दया, दान, व्रत, भक्ति तो बाह्य निमित्तमात्र है। शुद्ध अनुभवरूप परम सामायिक अथवा यथाख्यातचारित्र उपादानकारण है। भगवान आत्मा के आनन्दस्वभाव का अनुभव करना, वह मूल उपादान है। यह ३६ गाथा हुई। चलो। व्यवहार का मोह त्यागना जरूरी है जइ णिम्मलु अप्पा मुणहि छंडवि सहु ववहारू। जिण-सामिउ एमइ भणइ लहु पावहु भवपारू॥३७॥ शुद्धातम यदि अनुभवो, तजकर सब व्यवहार। जिन परमातम यह कहें, शीघ्र होय भवपार॥३७॥ अन्वयार्थ - (जिणसामिउ एहउ भणइ) जिनेन्द्र भगवान ऐसा कहते हैं (जइ सहु ववहारूछंडवि णिम्मलु अप्पा मुणहि) यदि तू सर्व व्यवहार छोड़कर निर्मल आत्मा का अनुभव करेगा (लहु भवपारूपावहु) तो शीघ्र भव से पार होगा। ३७ । व्यवहार का मोह त्यागना जरूरी है। देखा? वहाँ (३५ गाथा में) कहा था कि ववहार उत्तिया समझे न? उसे जानना (ऐसा कहा), यहाँ छोड़ने की बात करते हैं।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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